Thursday, July 21, 2016

व्यंग्य-उपन्यास कहलाने के लिए उसमें कितने प्रतिशत व्यंग्य होना आवश्यक है?- सुरेश कांत


कुछ दिन पहले एक मित्र ने जिज्ञासा व्यक्त की थी कि किसी उपन्यास को व्यंग्य-उपन्यास कहलाने के लिए उसमें कितने प्रतिशत व्यंग्य होना चाहिए? उन्होंने एक जिज्ञासा और की थी कि कथात्मक होना व्यंग्य के लिए घातक है या साधक, लेकिन उसके बारे में फिर कभी|

मित्र द्वारा यह जिज्ञासा एक वरिष्ठ व्यंग्यकार द्वारा अपनी टाइमलाइन पर पोस्ट किए गए अपने नए शुरू किए गए उपन्यास के अंश के संदर्भ में की गई थी| वरिष्ठ व्यंग्यकार ने इस बारे में अपनी राय व्यक्त करते हुए कहा था कि तीस-पैतीस प्रतिशत व्यंग्य होने पर उपन्यास व्यंग्य-उपन्यास हो जाता है| उनका आशय स्पष्ट था कि किसी भी व्यंग्य-उपन्यास में पूरा व्यंग्य नहीं होता, बीच-बीच में उसमें कथानक सामान्य रूप से भी चलता है|

मैं पूरी विनम्रता के साथ उनसे असहमत होने की अनुमति चाहता हूँ| क्योंकि उनके फार्मूले को मानें, तो बहुत सारे ऐसे उपन्यास व्यंग्य-उपन्यासों की श्रेणी में गिनने पड़ेंगे, जो वस्तुत: व्यंग्य-उपन्यास नहीं हैं| खासकर किसी व्यंग्यकार द्वारा लिखे गए व्यंग्येतर उपन्यास| नरेन्द्र कोहली इसके सर्वोत्तम उदाहरण हैं| उनके सभी पौराणिक उपन्यासों में बीच-बीच में जाने-अनजाने उनका व्यंग्यकार भी टहलता हुआ चला आता है और खासकर उनके संवादों में अपनी छाप छोड़ जाता है| श्रीकृष्ण के जीवन पर आधारित उनके उपन्यास ‘वासुदेव’ में तो एक पात्र का नाम ही अर्जुन सिंह है, जो तत्कालीन शिक्षा-मंत्री अर्जुन सिंह पर व्यंग्य करने के लिए ही आया है| गीता पर आधारित उनके नवीनतम उपन्यास ‘शरणम्’ में भी गांधारी, धृतराष्ट्र, संजय आदि प्राय: सभी पात्रों के अनेकानेक संवाद वक्रतापूर्ण होने के कारण व्यंग्यात्मक हैं और उनकी मात्रा तीस-पैंतीस प्रतिशत तक भी हो सकती है| लेकिन उन्हें तथा ऐसे अन्य अनेक उपन्यासों को व्यंग्य-उपन्यास नहीं माना जा सकता।

मेरे विचार से किसी उपन्यास को व्यंग्य-उपन्यास होने के लिए उसका शत-प्रतिशत व्यंग्यात्मक होना आवश्यक है| उसमें पूरा व्यंग्य होगा, तभी वह व्यंग्य-उपन्यास होगा।

लेकिन शत-प्रतिशत का मतलब यह नहीं कि उसका हर शब्द या वाक्य व्यंग्य से सराबोर हो| शत-प्रतिशत का मतलब है कि उसका समग्र प्रभाव व्यंग्यात्मक हो| शब्द तो अपने आपमें कोई भी व्यंग्यात्मक नहीं होता| खुद ‘व्यंग्य’ शब्द व्यंग्यात्मक नहीं है| ‘व्यंग्य’ शब्द पढ़-सुनकर व्यंग्य का कुछ भी रस या आनंद नहीं आता| कई बार तो व्यंग्य में आने वाले वाक्य के वाक्य व्यंग्यात्मक नहीं होते| लेकिन वे शब्द या वाक्य आगे आने वाले ऐसे किसी प्रासंगिक शब्द/शब्दों या वाक्य/वाक्यों की ओर ले जाते हैं जो व्यंग्यात्मक होता/होते हैं और फिर वे व्यंग्यरहित शब्द या वाक्य व्यंग्यात्मक शब्दों या वाक्यों के साथ मिलकर एक व्यंग्यात्मक प्रभाव उत्पन्न कर देते हैं| मिलकर वे सभी व्यंग्यात्मक हो जाते हैं। मिलकर वे समग्र परिदृश्य को व्यंग्यात्मक बना देते हैं| मिलकर वे सारे के सारे, शत-प्रतिशत व्यंग्य में बदल जाते हैं।

कुछ उदाहरणों से बात और स्पष्ट हो सकेगी| ये उदाहरण मैं केवल अपनी लिखने की मेज पर तत्काल उपलब्ध व्यंग्य-उपन्यासों में से दे रहा हूँ, इसका कोई और मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए।

1968 में छपकर आया अभी तक का महानतम व्यंग्य-उपन्यास ‘राग दरबारी’ इस तरह शुरू होता है :
“शहर का किनारा| उसे छोड़ते ही भारतीय देहात का महासागर शुरू हो जाता था।

वहीं एक ट्रक खड़ा था...”

अब इन शब्दों या वाक्यों में कोई व्यंग्य नहीं है। यहाँ तक कि देहात के लिए आया महासागर का रूपक भी अपने आपमें कोई व्यंग्यात्मक प्रभाव नहीं छोड़ता। यह रूपक किसी व्यंग्येतर उपन्यास में भी आ सकता था| तब तो कोई बिलकुल भी न कह सकता कि यह व्यंग्य है। अभी भी हम इसमें थोड़ा-बहुत व्यंग्य इसलिए सूँघ पा रहे होंगे कि हमें पहले से पता है कि यह ‘राग दरबारी’ का अंश है।

लेकिन ठीक अगला वाक्य इस पूरे परिदृश्य को व्यंग्य में बदल देता है :

“(वहीं एक ट्रक खड़ा था|) उसे देखते ही यकीन हो जाता था, इसका जन्म केवल सड़कों के साथ बलात्कार करने के लिए हुआ है|”
‘बलात्कार’ शब्द भी अपने आपमें व्यंग्यात्मक नहीं है, रोज अखबारों में हम इस शब्द को पढ़ते या न्यूज-चैनलों में सुनते हैं पर उससे हमारे भीतर व्यंग्य नहीं, जुगुप्सा उत्पन्न होती है। बेशक, आक्रोश भी उत्पन्न होता है, जो कि व्यंग्य का ही एक कारक है, बल्कि मुख्य कारक है, फिर भी अखबारों-चैनलों में ‘बलात्कार’ शब्द पढ़-सुनकर, आक्रोश उत्पन्न होने के बावजूद, व्यंग्य उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि आक्रोश व्यंग्य का कारक भले ही है, पर अपने आपमें व्यंग्य नहीं है| रचना में आक्रोश को व्यंग्य में बदला जाएगा, तभी वह व्यंग्य होगा।

लेकिन यहाँ ‘बलात्कार’ शब्द जबरदस्त व्यंग्य पैदा कर रहा है। अत्याचार, अनाचार, दुराचार जैसे बलात्कार से मिलते-जुलते शब्द वैसा व्यंग्य पैदा न कर पाते। ‘बलात्कार’ शब्द अपने में समाहित समस्त ज्यादती, विवशता, परिणाम यहाँ उत्पन्न कर देता है| इस वाक्य के साथ मिलकर पूर्ववर्ती वाक्य भी व्यंग्यात्मक हो जाते हैं| क्योंकि अब वे अलग वाक्य नहीं रहे| इस वाक्य के सहायक वाक्य हो गए।मिलकर ये एक ही महावाक्य या वाक्य-समूह बन गए।

अब जरा 1980 में पुस्तकाकार प्रकाशित व्यंग्य-उपन्यास ‘ब से बैंक’ का यह अंश देखिए :

“छात्र-छात्राओं के लिए वह टाकीज वैसे भी पर्याप्त आकर्षण रखता था। एक तो उस टाकीज में घटिया दर्जे की स्टंट फिल्में ही दिखाई जाती थीं, और दूसरे वह उनके स्कूल-कॉलेजों के एकदम पास था।| फलत: ‘जब जरा गर्दन उठाई देख ली’ जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी। स्कूल-कॉलेज से दफा हुए और सीधे टाकीज में ।पीछे-पीछे अध्यापक-गण भी उन्हें ढूँढ़ने निकलते और ‘मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक’ की तर्ज पर बनी ‘स्टूडेंट की दौड़ टाकीज तक’ कहावत को मद्देनजर रखते हुए, सीधे टाकीज पहुँचकर उन्हें धर लेते और कान पकड़कर (छात्रों के कानों से तात्पर्य है) ऐन घटना-स्थल पर जुर्माना ठोंक देते। बाद में जुर्माने की रकम से वे खुद भी फिल्म देखते और इस प्रकार जुर्माने की रकम का सही अर्थों में सदुपयोग करते।छात्रों की तलाश में निकले अध्यापक भी जब काफी देर तक न लौटते, तो प्रिंसिपल महोदय खुद भी मीर का यह शेर गुनगुनाते हुए, कि —
उन्हें ढूँढ़ते मीर खोए गए
कोई देखे उन्हें टाकीज की तरफ।
मय चपरासियों आदि के टाकीज पहुँच जाते| इस प्रकार, ऐसा अकसर हो जाता कि कक्षाएँ स्कूल-कॉलेजों की अपेक्षा टाकीज में लगतीं।”
देखा जा सकता है कि इस अंश के पहले-दूसरे वाक्य में व्यंग्य नहीं है, लेकिन वे वाक्य अगले व्यंग्यात्मक वाक्यों की आधारभूमि हैं और मिलकर सभी समग्र प्रभाव के रूप में व्यंग्यात्मक हो जाते हैं।

एक अंश 1994 में छपे व्यंग्य-उपन्यास ‘नरक-यात्रा’ से भी उद्धृत करना चाहूँगा :

“अस्पताल का मुर्दाघर।

अस्पताल की लंबी, बेतरतीब इमारत के अंत में एक टूटी पगडंडीनुमा सड़क थी, जो वहाँ समाप्त होती थी जहाँ इस समय एक ओर एक कमरे में लाश पड़ी थी तथा दूसरी ओर एक साइकिल खड़ी थी| साइकिल के कैरिअर में लंबी लाठी थी, जिसने इलाके में अच्छे-अच्छों की हड्डी-पसली बराबर की थी| लाठी हवलदार बलभद्दर की थी। लाश न मालूम किसकी थी।जिसकी थी, उसके रिश्तेदार उस कमरे के बाहर पास के मैदान में सिर झुकाए बैठे थे| साइकिल भी न मालूम किसकी थी। थाने में खड़ी थी, हवलदार ले आए थे| यह अस्पताल का मुर्दाघर था|...”

यह इस उपन्यास का प्रारंभिक अंश है| इस अंश में कोई व्यंग्य नहीं है| कोई नासमझ यह भी कह सकता है कि यह सपाटबयानी है| आजकल व्यंग्य में सपाटबयानी का बड़ा हल्ला है| इसे प्राय: दूसरे व्यंग्यकारों पर आरोप की तरह मढ़ा जाता है| इस विषय पर मैं कुछ समय पूर्व यहीं विस्तार से लिख चुका हूँ और परसाई आदि का उदाहरण देते हुए बता चुका हूँ कि किस तरह सक्षम व्यंग्यकार के हाथ में पड़कर सपाटबयानी भी व्यंग्य का घातक हथियार बन जाती है| लेकिन हाँ, सक्षम व्यंग्यकार के हाथ में ही| वरना तो व्यंग्य के नाम पर आजकल भयंकर सपाटबयानी चल रही है, जो व्यंग्य को व्यंग्य ही नहीं रहने देती| इस बारे में वरिष्ठ व्यंग्यकार सुभाष चंदर की चिंता बहुत वाजिब है और नए व्यंग्यकारों को खास तौर से उस पर ध्यान देना चाहिए| जहाँ तक उपर्युक्त व्यंग्यरहित वाक्यों का सवाल है, तो आगे आने वाले ये वाक्य उन्हें भी अपने में समाहित कर व्यंग्य का घनीभूत प्रभाव उत्पन्न कर देते हैं :

“(यह अस्पताल का मुर्दाघर था|) लोग इसे प्यार से चीरघर या पोस्टमार्टम-रूम भी कहते थे क्योंकि यहाँ लाशों को चीरकर, फाड़कर, आँतों, मस्तिष्क आदि की गहराइयों में उतरकर विद्वान् डॉक्टर यह तय करता था कि मौत कैसे हुई? देश की कर्तव्यपरायण पुलिस, सदैव चपल वकील, जैबी-जासूस तथा न्याय करने को आतुर न्यायालय इन पोस्टमार्टम रिपोर्टों की गंभीरता से प्रतीक्षा करते थे| इसी भिनकते, घिनाते, गँधाते कमरे में बड़ी-बड़ी हत्याओं के केस सुलझाए जाएँगे, ऐसा भोला विश्वास देश के कानूनविदों का था| इस इलाके में जो भी मरकर पुलिस के हत्थे चढ़ता, वह यहीं पहुँचता था|”

उदाहरण अन्य समर्थ व्यंग्य-उपन्यासकारों के उपन्यासों में से भी दे सकता हूँ और आगे अलग से और विस्तार से यह काम करूँगा भी, बल्कि कर ही रहा हूँ, लेकिन यहाँ बात लंबी हो जाने के भय से फिलहाल और अधिक उदाहरण न देते हुए मैं एक संभावित जिज्ञासा का समाधान और करना चाहूँगा| वह यह कि जब व्यंग्य-उपन्यासों में सभी वाक्य व्यंग्यात्मक नहीं होते, तो ऐसा क्यों नहीं समझा जा सकता कि तीस-पैंतीस प्रतिशत, बल्कि साठ-पैंसठ या सत्तर-अस्सी या अस्सी-नब्बे प्रतिशत भी, व्यंग्य होने पर उपन्यास व्यंग्य-उपन्यास हो जाता है?
वह इसलिए कि इन दोनों बातों में अंतर है| व्यंग्यात्मक वाक्यों से पहले आने वाले व्यंग्यरहित वाक्य, चाहे वे संख्या में आधे-आधे भी क्यों न हों, व्यंग्यात्मक वाक्यों के साथ मिलकर एक अटूट व्यंग्यात्मक इकाई बनते हैं, जबकि कहीं सामान्य और कहीं व्यंग्यात्मक अंश उसे व्यंग्य-उपन्यास नहीं रहने देते| पहले मामले में सभी वाक्य मिलकर व्यंग्य का समग्र प्रभाव छोड़ते हैं, जबकि दूसरे मामले में व्यंग्यात्मक अंश तो व्यंग्य का प्रभाव छोड़ेगा, लेकिन सामान्य अंश नहीं| दूसरे शब्दों में, व्यंग्य-उपन्यास में आने वाले साधारण वाक्यों की अपने आपमें कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं होती, वे व्यंग्यात्मक वाक्यों की ओर ले जाने वाले वाहक मात्र होते हैं, और अलग से व्यंग्यात्मक न होते हुए भी व्यंग्यात्मक वाक्यों के साथ मिलकर समग्रत: व्यंग्यात्मक प्रभाव छोड़ते हैं, जबकि दूसरे मामले में व्यंग्यकार कुछ प्रसंगों या अंशों को व्यंग्यात्मक बनाने में असमर्थ रहता है| और इसलिए ऐसा भी हो सकता है कि अगर कोई अन्य व्यंग्यकार उन्हें लिखता, तो उन्हें भी व्यंग्यात्मक रूप में ही प्रस्तुत कर देता|

अंत में यह समझना भी आवश्यक है कि कथानक उपन्यास को केवल उपन्यास बनाता है, व्यंग्य-उपन्यास नहीं| व्यंग्य-उपन्यास उसे व्यंग्य ही बनाता है| इसलिए कुछ व्यंग्यकारों की यह धारणा न केवल गलत है, बल्कि कुछ हद तक उनकी अक्षमता भी प्रदर्शित करती है, कि (कभार-कभार ही सही) कथानक के आगे व्यंग्य शिथिल हो जाए तो चलेगा, पर कथानक शिथिल नहीं होना चाहिए| ऐसा अकसर वे व्यंग्यकार ही कहते पाए जाते हैं, जिनके व्यंग्य-उपन्यासों में कथानक के आगे व्यंग्य शिथिल होता पाया जाता है|

और हाँ, ये बातें व्यंग्य-उपन्यास पर ही नहीं, सभी व्यंग्य-रचनाओं पर लागू होती हैं।

-सुरेश कांत

व्यंग्य लिखना-पढ़ना: क्या बस यों ही?

व्यंग्य लिखना-पढ़ना: क्या बस यों ही?



हिंदी व्यंग्य साहित्य लेखकों और पाठकों की दृष्टि से खासा समृद्ध प्रतीत होता है. छोटी मझोली पत्रिकाओं की घटती आवृत्तियाँ और नियमित बड़ी पत्रिकाओं के लगभग अवसान के बावजूद ऐसा कहना पड़ रहा है तो इसके पीछे अखबारों के दैनिक कालम, साप्ताहिक परिशिष्ट और यदा-कदा निकलने वाले व्यंग्य- विशेषांक हैं. लिखने वालों के लिए स्पेस की कोई कमी है, मुझे तो नहीं लगता. पढ़ने वाले भी हैं, जिसका प्रमाण इनका छपना-बिकना है. उस पर सोशल-मिडिया, वर्चुअल ग्रुप, इन्टरनेट पर साहित्य कोष और व्यक्तिगत ब्लॉग. लिखने–पढने की अनंत संभावना. पर क्या हिंदी व्यंग्य इस अभूत-पूर्व संचार-क्रान्ति का उपयोग कर अपना समुचित विकास कर पा रहा है? क्या बदलता दौर उसमें पूरी तरह धड़क रहा है? कहीं बदलाव का दबाव उसे अपनी साहित्यिक परम्पराओं और मानकों के राजमार्ग से उतर कर भटकाव की पगडंडियों की ओर तो नहीं मोड़ रहा? कहीं वर्तमान व्यंग्य लिखने-छपने की असीम सम्भावनाओं के बीच अति-उत्साह का शिकार होकर केवल तात्कालिकता के जाल में तो नहीं उलझ गया और समय की धार में छुपे शाश्वत मूल्यों के सीप को त्याज्य समझने लगा? व्यंग्य को लेकर इन्हीं सन्दर्भों में कुछ चिंताएं जताई जा रही है इन दिनों. ऐसे कुछ प्रश्नों की पड़ताल अकादमिक बहसों से बचते हुए, केवल व्यंग्य लिखने और पढने वालों के नज़रिए से इस लेख में करने का प्रयास होगा.

व्यंग्य है क्या बला?

व्यंग्य लिखते सब हैं पर क्या समझते भी हैं? पश्चिमी साहित्य में इसके कुछ शास्त्रीय विधान है पर अपने यहाँ कोई सर्व-स्वीकृत परिभाषा नहीं है. मूलतः ये तंज, चुटकियाँ और अक्सर कटु आलोचना है- सामाजिक प्रवृत्तियों, विसंगतियों और कभी-कभी इनके कारक व्यक्तियों की भी. इस हद तक भी कि बिना एक नैतिक स्वर के ये गाली-गलौज के करीब हो जाय. स्थिति की विडम्बना को कुरेदना, कटूक्तियों से विसंगति को उधेड़ देना इसकी प्रकृति है. अभिधा, अतिश्योक्ति, कड़वी मलामत, पैरोडी, कैरिकेचर, उलटबांसी, फैंटेसी जो भी हथियार काम आ जाए उसी से एक आदर्श समाज से चिपटी जोंकों को निकाल फेंकने की कोशिश. इसका एक सिद्ध कारगर हथियार हास्य है. सरस और सरल अंदाज़ में कही गई बात पाठक तक सीधे पहुंचती है, ये सभी साहित्यिक विधाओं के लिए सच है, पर व्यंग्य के लिए विशेष तौर पर क्योंकि इसका लक्ष्य आम पाठक है. व्यंग्य में कथन का सपाटपन और दुरुहता दोनों ही उसे बोझिल और अबूझ बनाती है. अपने कथ्य के अनुरूप मुहावरों और प्रतीकों की रचना कर व्यंग्य का सम्प्रेषण सहज बनाया जाता है. व्यंग्यकार का अंतिम काम हरेक छद्म से पर्दा उठा देना और नंगी सच्चाई को पाठक की दृष्टि के लिए सुलभ बनाना है.

अच्छा व्यंग्य गूढ़ दार्शनिकता नहीं बघारता, कम शब्दों में पाठकों की ज़िन्दगी पर असर डालने वाली विसंगतियों पर चोट करता है – एक तरह से पाठकों की प्रतिक्रिया को ही शब्द देता है. ये रोजमर्रा की घटनाओं को तिर्यक दृष्टि से परख कर उनकी परतें उधेड़ कर सामने रखता है और पाठक की क्षोभ या उत्तेजना भरी प्रतिक्रिया को एक अर्थपूर्ण गाम्भीर्य प्रदान करता है. अच्छा व्यंग्य पाठक के मनोविज्ञान को धनात्मक ऊर्जा से भरता है और सामाजिक मूल्यों को स्वीकार या खारिज करने की निर्णय-प्रक्रिया में तार्किक संगति लाता है. परन्तु ये सब तभी संभव होता है जब व्यंग्यकार स्वयम भी अपने लेखकीय सरोकारों के प्रति सजग हो, परम्पराओं और तात्कालिक स्थितियों का ज्ञान रखता हो और अपने आसपास हो रहे परिवर्तनों का सूक्ष्म अवलोकन करता हो. न केवल पाठकों की संवेदना से जुड़ने का माद्दा रखता हो बल्कि अभिव्यक्ति के स्तर पर पूरी तरह ईमानदार भी हो.

विधा या शैली

कुछ लोगों की जिद-सी है कि व्यंग्य कोई विधा नहीं एक शैली भर है जो जरुरत भर अभिव्यक्ति के सभी माध्यमों में मिलाई जाती है. ये सही है कि लगभग हर विधा में व्यंग्य अंतर्धारा के रूप में बहाया जा सकता है क्योंकि ये करुणा का नाटकीय उदघाटन करने में सक्षम है, पर व्यंग्य को कथा-सूत्रों या विशुद्ध निबंधों में ढाल कर रचना के जिस स्वरूप का सृजन हिंदी व्यंग्य की हमारी अग्रज पीढ़ी ने किया और इसमें निरंतर सार्थक लेखन कर उसे एक अलहदा रंग दिया उसे क्यों एक विधा न माना जाए, इसका भी सुस्पष्ट जवाब किसी के पास नहीं. पारंपरिक तौर पर व्यंग्य निबंध, प्रतीकात्मक व फैटेसी युक्त कहानियों या प्रयोगात्मक आलेखों के रूप में लिखे जाते हैं. सामयिक सन्दर्भ लेकर कटाक्ष भरी टिप्पणियाँ इनकी शक्ति हैं.भारतेंदु से चलकर ज्ञान चतुर्वेदी तक आते-आते व्यंग्य के गद्य रूप का, चाहे अनगढ़ ही कह लें, मानक तो बन ही चुका है. निबंधों के रूप में खूब लिखा जाकर ये व्यंग्य लिखने वालों का प्रिय माध्यम है. परसाई और शरद जोशी का विशाल व्यंग्य-संसार इसे विधा न मानने वालों को करारा ज़वाब है. इनकी सहज-सरल पठनीयता और सरस हास्य की उपस्थिति के कारण पाठक को व्यंग्य अपना-सा लगता है. अगर वो पाठकों के प्यार से सींचा हुआ एक स्वस्थ पौधा है तो उसे बड़ा करना और उसकी शाखाओं को फलने-फूलने का अवसर देना साहित्य के लिए जरूरी नहीं? बदलते वक़्त के साथ साहित्य का रूप बदलता है, पर इतना तो नहीं कि सौ-डेढ़- सौ शब्दों की रचना को उपन्यास कह दिया जाए. हर विधा की अपनी प्रवृत्ति होती है. व्यंग्य किसी भी शैली में लिखा जाय, अपने स्पष्ट तेवर लिए होता है, बशर्ते सायास न हो. इसलिए अब ये जिद भी जरूरी है कि व्यंग्यकार जब किसी विषय को व्यंग्यात्मक लहजे में व्यक्त करने के लिए चुन कर कहानी, कविता या उपन्यास किसी भी विधा में लिखे, उसे व्यंग्य ही कहा जाए, उसके आगे कथा, निबंध, आलेख या उपन्यास के पुच्छल्ले न जोड़े जाने पर बहस शुरू हो.

 हम तो व्यंग्य ही लिखेगा...

 मेरे विचार में व्यंग्य एक नैसर्गिक प्रतिभाजन्य विधा है, जिसे साधना कठिन है. व्यंग्य सायास लिखा ही नहीं जा सकता, ऐसा करने वाला पकड़ा जाता है. स्वभाव से ही तंज करने वाले, वक्रोक्ति में ही बोलने वाले समाज में कई मिल जाते हैं. कुछ के सोचने का अंदाज़ ही वही होता है, चाहे बोलते न हों. इनमें साहित्यिक-प्रतिभा संपन्न लोग व्यंग्य लिखते हैं. चुटकुले और वन-लाइनर गढ़ने में विट की इन्तहा देखी जाती है. पर अगर मिजाज़ व्यंग्य लिखने का न हो तो महज इस वजह से व्यंग्य लिखने की जिद न किया जाय कि आपका लिखा व्यंग्य के कालम में छप तो जायेगा ही और आप ही जैसे कई और भी तो लिखे ही जा रहे हैं. कुछ नहीं तो व्यंग्य की ‘छवि’ का ही ध्यान रख लिया जाय कम से कम.

 पाउच में व्यंग्य

लघु व्यंग्य भी हमेशा से लिखे जाते रहे हैं. पर इन दिनों अधिकांशतः व्यंग्य के नाम पर ऐसी सामयिक टिप्पणियाँ लिखी जा रही हैं जो समाचार खण्डों का ही दूसरा संस्करण लगाती हैं. दो चार चुटीले वाक्य, जिन्हें पंच कहने की प्रथा है, डाल कर निश्चित शब्द-सीमा में खानापूर्ति सा कर दिया जाता है. इस व्यंग्य में कोई शाश्वत सत्य उद्घाटित होने की अपेक्षा नहीं की जाती. पढ़ा, हँसे और तह कर के रख दिया. यहीं सायास व्यंग्य लेखन की नींव पड़ती है. खबर का एक सफा लिया जाता है, उसपर चंद नए पुराने मुहावरे और एकाध तंज करने वाले जुमले जोड़ कर एक कच्ची-पक्की रचना पका ली जाती है. तर्क ये कि पाठक को इससे बड़ा पढ़ने की फुर्सत नहीं. तथ्य ये है कि अखबारों के व्यावसायिक दबाव अब साहित्यिक, वैचारिक आलेखों की जगह विज्ञापनों और बाज़ार-प्रेरित सामाजिक मूल्यों को तरजीह देने वाले कालमों को प्राथमिकता देते हैं. व्यंग्य कालम भी इसी तर्ज़ पर थोड़ी जगह पा जाते हैं. वहां लिखने वाले नए ज़माने के लेखक का व्यावसायिक उद्देश्य तो पूरा हो जाता है, पर धीरे-धीरे उसे ये भी यकीन हो आता है कि उसने जो लिखा वह व्यंग्य ही है. हालांकि कई लोग इस तंग दायरे में लिखते हुए भी सतर्क हैं और अपने व्यंग्य धर्म का भरसक निर्वाह कर रहे हैं, पर ज़ियादातर अपने लिखे को मनवाने की जिद है. क्या इस बंधन में घुटते सच्चे लेखक को विद्रोह नहीं करना चाहिए? इस सन्दर्भ में पचास-साठ के दशक का यादगार हिंदी फिल्म संगीत याद आता है जब गीत पहले लिखे जाते थे और बाद में संगीत-बद्ध होते थे. आगे ये प्रक्रिया उलट गई और परिणाम आपके सामने है. अब या तो व्यंग्यकार इतना प्रतिभाशाली हो कि अपनी बात सीमित स्पेस में ही मुक़म्मल कर पाठक की संवेदना को इतना झकझोर दे कि पाठक के जेहन में ही उसके कथ्य का पूरा खाका उभर आये. ये हमेशा मुमकिन नहीं है, इसलिए लेखक को इतनी आज़ादी मिलनी चाहिए कि वह अपने कथ्य के हिसाब से रचना का आकार तय करे और इतना करे कि रचना उपयुक्त भूमिका के साथ विषय के साथ न्याय करते हुए आगे बढे और अपने उपसंहार तक पहुंचे. शब्दों की मितव्ययिता तो व्यंग्य का मूलभूत स्वभाव ही है.

ताज़ा-ताज़ा माल

आकार के अलावा लेखक की एक बड़ी चुनौती विषय चयन की है. सामयिक सन्दर्भ से जुड़े रहना व्यंग्यकार की नियति है. पर आमतौर पर इसे ही अंतिम सच मानकर ज़ियादातर राजनीतिक उथल-पुथल को ही केंद्र में लिया जा रहा है. सामाजिक सरोकार भी नितांत सामयिक और स्थानीय आधारों पर चुने जाते हैं. परसाई और शरदजोशी ने राजनीति कटाक्ष खूब किये पर आज के लेखन से उनके यहाँ फर्क इतना है कि तब तात्कालिक स्थितियों में कुछ शाशवत सन्दर्भ जुड़े होते थे. अब कटाक्ष इस हद तक तात्कालिक, व्यक्तिपरक, सतही और सपाट होने लगे हैं जैसे राह चलते फिकरे कसे जा रहे हों. साहित्य-लेखक भी अगर फिक़रेबाज़ी पर उतर आये तो समाज में गंभीर विमर्श के लिए आधार नहीं रह जाते. छपे हुए अक्षर परम्परा से वैचारिक प्रामाणिकता लिए हुए माने जाते हैं. विषय की ताज़गी के बहाने हम किसी भी मुद्दे की गहरी पड़ताल से बचने की कोशिश भी करते हैं और उसे छूते हुए निकल जाने की आसानी को चुनते हैं.

भाखा बहता नीर

वैसे रचना की भाषा तो उसके कथ्य से निधारित होती है. चूँकि सन्दर्भ तात्कालिक होते हैं, उस पर भी टिप्पणीनुमा, वर्तमान व्यंग्य खिचड़ी बोलचाल की भाषा अपना रहा है. व्यंग्य की भाषा को ‘भाखा बहता नीर’ के तर्ज़ पर चलाने के तर्क दिए जा सकते हैं, पर इसकी निश्चित ही एक सीमा है. आंचलिकता, देशज शब्द और हिंदी के दायरे में ही रहकर कुछ भाषाई प्रयोग तो सभी विधाओं में हैं. पर व्यंग्य में हिंदी में बोलचाल या प्रचलन को बहाना बनाकर उसमें अंग्रेजी शब्दों का प्रदूषण बढाया जा रहा है. व्यंग्य लिखना फिल्म बनाना नहीं है जहां यथार्थ को दिखाने का फार्मेट भिन्न है. बाज़ार के दबाव में रेडियो, टीवी और कुछ अन्य मीडिया माध्यमों की भाषा के संस्कार इस तरह बदलते हैं पर साहित्यिक अभिव्यक्ति पर ऐसे किसी दबाव का कोई अर्थ नहीं. ये भी सच है कि भले आम बोलचाल की भाषा पर लेखक का नियंत्रण न हो, अपनी भाषा पर तो है, अपनी भाषा के प्रति लेखक का स्पष्ट दायित्व है. एक मंझी हुई भाषा में एक अच्छी रचना देकर लेखक अनजाने कई पाठकों की भाषा को संस्कारित कर रहा होता है.

बात पाठक को पहुंचे

व्यंग्य लिखना एक बेहद ज़िम्मेदारी-पूर्ण काम है. यहाँ स्वांतः सुखाय लिखने की छूट नहीं है. पाठक को लक्ष्य कर उसके सरोकार से जुड़े मुद्दों पर अपना कथ्य गढ़ना और उससे सीधे मुख़ातिब होकर बात कहनी है. अंतिम लक्ष्य पाठक को रिझाकर उसी के हित की बात उस तक पहुंचाना ही है. सटीक सम्प्रेषण ही लेखन की सबसे बड़ी चुनौती है. व्यंग्य में वक्रोक्ति होती है, अभिधा-व्यंजना, विट- आइरनी वगैरह का भी स्पर्श होता है, जिससे बात को सहज ग्राह्य रूप में कहना मुश्किल होता है. हास्य यहाँ मददगार होता है. बल्कि हास्य और व्यंग्य का जितना एकात्म समीकरण रचना में हो, रचना का सम्प्रेष्ण उतना ही गहरा होता है. आम तौर पर हास्य को व्यंग्य से अलग कर के देखा जाता है, बिलकुल नपनी लेकर उनका प्रतिशत नापा जाता है. तथाकथित विशुद्ध व्यंग्य की दुहाई दी जाती है, जिसे पारिभाषित करना असंभव-सा है. सरस हास्य के जरिये अपने व्यंग्यात्मक कथ्य को उभारना चाहिए. बिना हास्य व्यंग्य कड़वे घूँट जैसा है. लेखक को रचना में चमत्कार पैदा करने की कोशिश में सायास ‘पंच’ डालने से बचना चाहिए. लिखने के बाद खुद उसका पाठक बन कर उसकी पठनीयता जांचें. लय में अटकावों को सुलझायें, वाक्य-विन्यास में सहजता और सरलता रखने का प्रयास रहे. पर सबसे ज़रूरी ये है कि रचना का मूल कथ्य पूरी रचना में व्याप्त हो और अंत तक आते-आते पाठक उसे अंतर्मन में महसूस करे. कठिन ,मगर ईमानदारी और सच्ची समझ से इसे साधा जाय तो परसाई, शरद, श्रीलाल शुक्ल और ज्ञान चतुर्वेदी की ज्यादातर रचनाओं की तरह अपनी रचना को भी लगभग मुक़म्मल बना लेना संभव है.

व्यंग्य की क़िस्में

इन दिनों व्यंग्य कई रूपों में प्रचलित एवं स्थापित है. सपाटबयानी, अव्यंग्य, कुव्यंग्य, खालिस चुटकुले, हलकी टिप्पणियाँ वगैरह. अखबारों में इन तमाम रूपों को व्यंग्य के अंतर्गत जगह पाते देखा जा रहा है. इससे नए और व्यंग्य के क्षेत्र में आने को इच्छुक लेखक भ्रमित हो रहे हैं. इस भटकाव में लघु व्यंग्यों की एक प्रभावी और ज़रूरी शैली मात खा रही है. एक-एक पंक्ति का व्यंग्य सफलतापूर्वक सोशल मीडिया के जरिये अखबारों में भी जगह पा रहा है. ये एक स्वस्थ परम्परा है, पर इसके लिए जो प्रतिभा और विट चाहिए वो हर लिखने वाले में नहीं है. कई तो देखा-देखी मैदान में कूदे हैं, क्योंकि सोशल मीडिया पर सबका अपना व्यक्तिगत स्पेस है. इससे ये आश्वस्ति मुश्किल है कि धीरे-धीरे एक पंक्ति या एक पैरा का व्यंग्य चुटकुलों के दायरे में नहीं पहुँच जाएगा. जैसे अच्छे कार्टून का कैप्शन बेहतरीन व्यंग्य की उत्पत्ति करता है, अच्छे व्यंग्यकार की चुनौती यही होनी चाहिए कि बिना रेखाचित्र के ही अपने सृजन में वही प्रभावोत्पादकता लाने का अभ्यास करे. व्यंग्य निश्चित तौर पर सोद्देश्य लेखन है, केवल मनोरंजन या प्रहार इसका उद्देश्य नहीं है.

आलोचना ??

आलोचना को लेकर हिंदी व्यंग्य की दुनिया में खासा रोना पीटना मचा रहा है. तथाकथित साहित्यिक मुख्य- धारा की आलोचना ने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया, अधिक से अधिक समीक्षाओं तक व्यंग्य पर विमर्श सीमित रहा है. इसलिए स्वयं व्यंग्य की दुनिया में से ही आलोचक उभर रहे हैं. इससे कुछ असमंजस की स्थिति भी आई है. व्यंग्य में अच्छा और बुरा लेखन क्या है इसे लेकर विरोधाभासी निष्कर्ष निकलते दिखते हैं. उधर सोशल मीडिया ने रचना समीक्षा की अलग धारा बहाकर रचनाओं की गुणवत्ता को चंद ‘लाइक’ से तोलना शुरू कर दिया है. यहाँ हर रचनाकार का आत्म-मुग्धता की छत के नीचे अपना निजी ‘स्पेस’ है, जहां तक तटस्थ आलोचना की पहुँच नहीं है. खैर ये स्थिति सभी विधाओं के साथ हो सकती है पर उनके लिए आलोचना का एक परम्परागत स्थापित तंत्र है, जो व्यंग्य साहित्य में कभी नहीं रहा. इसलिए अब व्यंग्य में आलोचना को गंभीरता से लेने का समय है ये. एक सार्थक और गंभीर बहस शुरू हो. व्यंग्य के दोनों अतिवादी रूपों- एक सीमित दायरे में पठित-चर्चित आत्ममुग्ध लेखन और छप-छप कर स्वयंसिद्ध व्यंग्य लेखन को अपने खोलों से बाहर आकर आत्म-समीक्षा करने का आवाहन हो. आलोचना हिंदी व्यंग्य का एक स्तरीय, सरोकारी पर लोकप्रिय मानक सामने लाये जिसपर आधारित कर वर्तमान और अगली पीढियां सार्थक रचना करें. व्यंग्य विमर्श प्रजातांत्रिक हों, विचारों में अंतर्विरोधों को मिटाने और असुविधाजनक सवालों को टालने की बजाय उनका जवाब ढूँढने की कोशिश हो.

पीढियां ..

व्यंग्य का सबसे अधिक नुकसान उसे लिखने वालों के चलताऊ रवैये ने किया है. इसलिए अपने रचना कर्म को गंभीरता से लेने का आवाहन जुरुरी है. अखबारों में लिखने का एक निश्चित सा फार्मेट बना लिया गया है. उसमें प्रयोगों, साहित्यिकता और गंभीर विषयों से परहेज किया जाता है. सम्पादक आमतौर पर सीधे-सीधे ये कहते पाए जाते हैं कि हम तो ऐसा छापते हैं, सो आप ऐसा ही लिखें. कुछ शैलियाँ मानक मान ली गई हैं, या कहें कुछ लेखकों ने उस तथाकथित शैली को साध लिया है जो इन दिनों व्यंग्य कहला रहा है. सम्पादक व्यंग्य के विकास में अपनी ज़िम्मेदारी ढंग से निबाहें तो व्यंग्य प्रतिभाओं को आगे बढ़ने का अवसर मिले. नई प्रतिभाओं को सही रास्ता पुराने लेखक बताएं और अगर उन्हें खुद मालूम न हो तो रास्ते से हट जाएँ. वे लोग जो दूसरी विधाओं से व्यंग्य में कूद रहे हैं वे भी इसे आसान न समझें. ये कर्म तो ऐसा है कि सोच से कलम तक आते-आते कथ्य में झुर्रियां पड़ जाती हैं. समाज की विरूपताओं को कुरेद-कुरेद कर छलनी करता व्यंग्य किसी विषय पर चिन्तन और रचना प्रक्रिया में खासी वयस्कता की मांग करता है. इसलिए यहाँ व्यंग्यकारों की पीढियां हो सकती हैं, जिनमें नई पीढी को चाहें तो युवा पीढी कह लें, हालांकि ये संभव है कि नई पीढी में खासे उम्रदराज़ लोग भी आ जाएँ. व्यंग्य को सामाजिक परिवर्तनों के दौर में बाँट कर परखा जा सकता है क्योंकि ये साहित्यिक प्रवृत्तियों में नहीं बंधता. वो शैलियों में भी नहीं बंधता यानी रचनात्मकता के अलग-अलग दौरों में उसका अंदाज़ बदलता रहता है. फिर भी ये फिल्मी गीतों वाला मामला नहीं है कि कभी गोल्डन एरा था और अब यो- यो हनी सिंह हैं. उधर कविता में पीढ़ियों का अंतराल अक्सर साफ़ दीखता है, क्योंकि वह अनुभूतियों की अभिव्यक्ति है. एक मुशायरे में परम्परानुसार आखिर में पढ़ने वाले बुज़ुर्ग शायर ने युवा शायरों के अद्भुत कलाम पर हुई घनघोर वाह-वाह के बाद पढ़ने से ही मना कर दिया कि उनकी ग़ज़लों के ख़याल इन ताज़ा कलामों के मुकाबले बेहद पुराने हैं. कविता में भी नई उम्र की अभिव्यक्तियाँ ताज़ा लुत्फ़ से भरी होती हैं. पर गद्य विधाओं में संगीत साधना की तरह रचनात्मकता पकती और प्रगाढ होती है. पर व्यंग्य में ज़रा सी छूट ये मिल जाती है कि उसका एक तात्कालिक स्वरूप भी होता है. कालमों में सामयिक घटनाओं पर चुटीली टिप्पणियों को भी व्यंग्य कहने का रिवाज़ है. इसके लिए अनुभव से ज़्यादा विट की ज़रूरत है क्योंकि पर जब व्यंग्य की साहित्यिक परम्परा से जुड़ने की बात आती है तो सामने परसाई, शुक्ल, जोशी, त्यागी और चतुर्वेदी मानक के तौर पर आ खड़े होते हैं. यहाँ पीढ़ियों का अंतराल गायब भी हो जाता है. इन व्यंग्यकारों के हर्फ़-हर्फ़ जवान हैं, आज के युवाओं की आवाज़ से अलग नहीं.

सावधानी हटी.....

एक बात तो तय है कि व्यंग्य लिखने वाले के विषय चुनाव पर तात्कालिकता, सनसनी, राजनीतिक पक्षधरता और बाजारवाद का प्रभाव है. इसके अलावा सूचना-क्रान्ति से गद्य-लेखन में छाये आधिक्य और अनाम-अदृश्य पाठकों की विशाल संख्या के भ्रम का जाल भी है. लेखक एक व्यामोह में फंसा है. उसका अधिकाँश समय निरर्थक शब्द जालों को पढ़ने-सुलझाने में जाया हो रहा है. वह इतना सब कुछ देख-सुन- पढ़ कर खुद को एक प्रतियोगिता में फंसा पा रहा है. मुख्य धारा में आने की ज़द्दोज़हद और जल्दी में अपनी रचना प्रक्रिया को पकने  देने का समय नहीं उसके पास. ये मुख्य-धारा बहती कहाँ है उसे इसका भी अंदाज़ा नहीं. सोशल मीडिया और दीगर समूहों के सहरा  में वो भटक जाता है- कितने तो समूह हैं- कितने विमर्श हैं- उतने ही समारोह-सम्मलेन- गोष्ठियां और पुरूस्कार-सम्मान आदि. त्वरित संचार के इस युग में उसे ठहर कर अपना कुछ सोचने का वक्त नहीं मिलता और खबरों के बोझ तले पिछड़ जाने के भय से वह कच्ची-अधपकी रचनाएं लेकर इस भंवर में कूद पड़ता है. उसके विषय ज़माने की तरह ही भटके हुए, तात्कालिक और सनसनी महत्त्व के होते हैं. छपे हुए को ही मानक समझ कर वह भी छप भर जाने की अंधी दौड़ में लग जाता है. ये तय न कर पाने से कि उसे कहना क्या है उसका कथ्य उलझा हुआ-सा, विरोधाभासी जुमलों से लबरेज़ होने लगा है. वह विवश-सा है, क्योंकि विषय उसके मन से चुने न जाकर उसपर थोपे जा रहे हैं, जो व्यंग्य के विषय ही नहीं उन्हें भी तीन चार सौ शब्दों में बरत डालना, छप जाने के आश्वासन पर उसे बुरा सौदा नहीं लगता. पर इससे हिन्दी व्यंग्य साहित्य के कूड़ेदान में योगदान के सिवा कुछ नहीं हो रहा उसे इसका अहसास भी नहीं. क्या इस स्थिति को देख-समझ कर आज के व्यंग्यकार को चेत नहीं जाना चाहिए? अपने व्यंग्य धर्म के हित में अनुकरण या भेडचाल से बचते हुए क्या उसे मात्र ‘अपनी’ रचनात्मक अभिव्यक्ति को ही सामने रखें की जिद नहीं रखनी चाहिए? एक दिन जब यही प्रश्न इतिहास पूछेगा तो जवाब नहीं सूझेगा. अब इस बहस को भी ख़त्म करने की ज़रूरत है कि व्यंग्य विधा है या नहीं. व्यंग्य को लघु, सामान्य और विस्तृत श्रेणियों में रखा जाय न कि दूसरी विधाओं के वर्णसंकर उत्पाद के तौर पर. व्यंग्य अगर व्यंग्य हो तो केवल व्यंग्य कहलाये और व्यंग्य है या नहीं इसकी जांच के लिए क्लिष्ट शास्त्रीय पैमानों की जगह उसकी पठनीयता, सामाजिक सरोकार, तंज, विट और मानवीय दृष्टिकोण जैसे मूलभूत आधार ही लिए जाएँ. चुटकुलों से अलग दिखने के लिए लघु व्यंग्यों को इतना आधार पर्याप्त होगा. सपाटबयानी, सतही टिप्पणी और व्यक्तिगत आक्षेपों को कतई व्यंग्य न कहा जाय. सामयिकता को व्यंग्य में उसी हद तक स्वीकारा जाए, जहां उसमें कोई शाश्वत तत्व झलक जाए. व्यंग्य की दूकानों पर छापा मार कर नकली सामन की जप्ती हो और उन्हें एक सबल और सुस्पष्ट आलोचना तंत्र के जरिये चिन्हित कर हाशिये पर फेंका जाय.

नवोदित, युवा हैं हम.. थोड़ा आशावाद

पत्र-पत्रिकाओं की कमी, आलोचना-समीक्षा की उदासीनता और ढेरों लिख कर छपने को उत्सुक अधिकाँश नवोदितों द्वारा व्यंग्य के नाम पर बस ‘छपनीय’ लेखन के कारण हिंदी व्यंग्य में अराजक-सी देखने वाली स्थिति अभी तक तो मुझे निराशाजनक नहीं लगती. साहित्य की हर विधा में बदलते दौर में रचनाकारों द्वारा खुद को ढालने की प्रक्रिया में ऎसी स्थिति देखी जाती है. व्यंग्य-संसार में भी एक ओर छपने के सिकुड़ते दायरों और दूसरी ओर इन्टरनेट पर लिखने-पढ़े जाने की असीम सम्भावनाओं के विरोधाभासी परिदृश्य में अपने लेखन का तालमेल बैठाने की जद्दोज़हद चल रही है. इतने लिखने वाले कभी भी एक साथ सीन पर मौजूद नहीं थे. ये भी न मानने की कोई वज़ह नहीं कि ये सब सोद्देश्य यहाँ नहीं आये. इन्हें बस परम्परा से जुड़े रहने का माहौल देने की जरूरत है. वे व्यंग्य क्यों लिख रहे है इसका एक सुचिंतित तर्क है उनके पास, पर ये भ्रम भी है व्यंग्य के नाम पर कुछ लिख भर देने से पाठक तैयार मिल जाते हैं. दो-चार जगह छपने के बाद ये भ्रम यकीन में बदलने लगता है. किसी और को पढने की जरूरत नहीं समझते. कुछ समान-धर्मा लेखकों के बीच उठ-बैठ कर ही साहित्यिक पिपासा का शमन करने लगते हैं. फेसबुक पर अपनी रचनाओं पर प्रतिक्रियाओं को देख भी अपने लेखन के प्रति आत्म-मोह पैदा होता है. कुछ प्रमाण-पत्र बांटने वाले गुटों ने भी ऐसे भ्रमों की ज्वाला में समिधा डाली है. नए लेखक अच्छा साहित्य पढ़ें, सभी विधाओं में से चुन-चुन कर पढ़ें तो एक सम्यक दृष्टि पैदा हो. अग्रज लेखकों की रचनाएं मॉडल की तरह न अपनाएं बल्कि पढ़कर विषय पर उनके ट्रीटमेंट से सीख लें. फिर कलम पकड़ें. बुरा लेखन हमेशा हाशिये पर ही नहीं जाता, बहुत अधिक मात्रा में हो तो अच्छे लेखन पर  फफूंद की भाँति जम जाता है. फिर बुरे लेखन में ये जिद पैदा होने लगती है कि अच्छे लेखन की परिभाषा करने वाले तुम कौन? ये वायरस हिंदी व्यंग्य की आबोहवा में घुसने लगा है. पर मुझे यकीन है कि इस वायरस का टीका भी हमारी अपनी व्यंग्य परम्परा में ही है.

एक साहित्यिक विधा के तौर पर पनपने के लिए व्यंग्य का ये बेहतरीन समय है. ढेरों नई प्रतिभाएं, अनुभवी लेखकों का नए उत्साह से व्यंग्य में उतरना, हास्य-व्यंग्य कथा और उपन्यासों के क्षेत्र में बढ़ता काम और इस सारे काम को एक विशाल पाठक वर्ग तक पहुंचाने के लिए इन्टरनेट और पत्र-पत्रिकाओं का बढ़ता स्पेस. व्यंग्य की युवा पीढ़ी बेहद प्रतिभा संपन्न है. उसकी दृष्टि की पहुँच दूर तक है. संचार-क्रान्ति उसे पल-पल की खबर देकर उसकी संचेतना को सचेत और समृद्ध करती है. विडंबनाओं के सभी पह्कुओं की पड़ताल करने को उसके पास एक से एक औज़ार हैं. अपने समय को व्यक्त करने में व्यंग्य इन युवा लेखकों की अभिव्यक्ति की धार को और पैना करता है तो खुद व्यंग्य भी उनके हाथों नए नए प्रयोगों के पहियों पर नई-नई दिशाओं की खोज करता है. इसलिए आशावाद को फलने-फूलने देने की जरुरटी है. साथ ही हिंदी व्यंग्य साहित्य की हवेली को समय समय पर झाड-पोंछ कर यहाँ-वहां जैम रहे फफूंदों को साफ़ भी करते रहना होगा ताकि नई प्रवृत्तियाँ भी ढंग से अपनी जगह टिक कर इसकी परम्परा-जन्य भव्यता में अपना अस्तित्व जोड़ पायें.
 

Friday, July 8, 2016

हरिशंकर परसाई -दो खुले खत

[हरिशंकर परसाई के लेख के प्रति साथियों की दिलचस्पी को देखते हुये मुझे उनके बारे में अपने साथियों को कुछ और पढ़वाने का मन कर रहा है। आज मैं उनके मित्र, रायपुर-जबलपुर से निकलने वाले हिंदी दैनिक देशबन्धु के प्रकाशक मायाराम सुरजन द्वारा परसाई जी को लिखे खुला खत पोस्ट कर रहा हूँ। यह खुला पत्र मायाराम सुरजन ने परसाई जी के पचास वर्ष पूरे करने पर लिखा था। पत्र में कुछ जिन कुछ बातों का जिक्र हुआ उनके बारे में बता दूँ। परसाई जी के उग्र व्यंग्य लेखन से बौखला कर संघ के कुछ स्वयंसेवकों ने उनको पीट दिया।परसाईजी इससे बहुत क्षुब्ध थे। इलाज के लिये अस्पताल पहुँचने पर वहीं से उन्होंने अगले दिन लेख लिखा -मेरा लिखना सार्थक हुआ। उनके व्यंग्य ने संघ वालों को इतना तिलमिला दिया कि वे हिंसा पर उतारू हो गये। बाद के दिनों में परसाईजी शराब काफी पीने लगे थे। मायाराम सुरजन उन कुछ लोगों में थे जिनका नियंत्रण परसाईजी पर था। इसीलिये उन्होंने लिखा है-यह जरूरी नहीं कि 'किक' मिलने पर ही अच्छे साहित्य की रचना की जा सकती है। 
 
ये पत्र हरिशंकर परसाई की मानसिक बनावट,मित्रों से उनके रिश्तों तथा उनके सोच-सिद्धान्त को समझने का जरिया हैं।]

हरिशंकर परसाई के नाम

मायाराम सुरजन का खुला पत्र

देशबन्धु,रायपुर
२६ अगस्त,१९७३
प्रिय भाई,
यूँ तुम इस पत्र के अधिकारी नहीं हो,क्योंकि जब ५-६ महीने पहिले मैंने ५० वर्ष पूरे किये थे तो तुमने मुझ पर कोई प्रशंसात्मक लेख लिखना तो दूर रहा,बधाई की एक चिट्ठी तक नहीं भेजी। इसीलिये जब तुम पिटकर ‘आल इंडिया’ से कुछ ऊपर के ‘फिगर‘ हो गये हो तो मैंने तुम्हारी मातमपुरसी तक नहीं की। इसलिये कि कम-से-कम तुम्हारी लेखनी के लिये कुछ और नया मसाला मिलेगा।

फिर भी,बहुत दिनों से तुमसे मुलाकात नहीं हुई,इसलिये यह सार्वजनिक पत्र लिखे ही देता हूँ ताकि लोगों को यह मालूम हो जाये कि तुम्हारे भी पचास वर्ष पूरे हो गये हैं। दरअसल उम्र तो चलती ही रहती है। बात तो उपलब्धियों की है। इस उम्र में तुम्हारी कलम ने बहुत जौहर दिखाये हैं और उसकी वजह से तुम्हें अखिल भारतीय ख्याति भी प्राप्त हुई है। पर इससे क्या हुआ? तुम अभी भी ऐसे मकान में रहते हो,जिसमें बरसात का पानी चूता है,जिसके चारों ओर कोई खिड़कियाँ नहीं और कोई मकान बनाने लायक कमाई तुम कर नहीं पाये। उम्मीद थी कि सन्‌ ७२ में राज्यसभा के जो चुनाव हुये थे उसमें तुम्हारा भी एक नाम होगा, लेकिन चुनाव तो तुम लड़ नहीं सकते। जो लोग वोट देने वाले हैं,तुम उनकी ही बखिया उधेड़ते रहते हो,तब राष्ट्रपति ही तुम्हें मनोनीत करें यही एक विकल्प बाकी है। वहाँ तक तुम्हारा नाम पहुँचने के बावजूद पश्चिम बंगाल बाजी मार ले गया। दरअसल वहाँ भी बिना किसी ऊँची शिफारिश के कोई काम नहीं हो सकता। अगले साल फिर कुछ उम्मीद की जा सकती है,और तुम कुछ करोगे नहीं,इसीलिये इस लेख के द्वारा उन लोगों को याद दिलाना चाहता हूँ जो एक बार फिर इसके लिये पहल करें।चुनाव लड़ने का नतीजा तो तुम देख ही चुके हो। मुझे सिर्फ ५ वोट मिले और पं.द्वारिका प्रसाद मिश्र इसलिये मेरी मदद नहीं कर सके कि राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन ,कांग्रेसाध्यक्ष कामराज तथा केंद्रीय मन्त्री मोरारजी देसाई ने श्रीए.डी.मणि के नाम बचत वोट देने का परवाना भेज दिया था।
दरअसल सिद्धान्तों के चिपके रहने से कुछ होता नहीं ,थोड़ी-बहुत चमचागिरी तो करनी ही पड़ेगी,मुसीबत यह है कि सत्ता रोज-रोज बदलती है और चमचे कुछ इस धातु के बनते हैं कि सत्ता के साथ उनके रंग भी बदल जाते हैं।तुमसे कुछ ऐसा बन सके तो मेरी सलाह है कि कुछ उद्योग जरूर करो।

म.प्र. में रहकर लिखा-पढ़ी में क्या रखा है। तुम अगर दिल्ली में रहो तो हो सकता है कि आगे-पीछे घूमने से तुम्हें भी कोई स्कालरशिप मिल जाये। एकाध स्टेनोग्राफर भी मिल सकता है और कुछ साल तुम सुखी रह सकते हो। यह तो हम कई बार विचार ही चुके हैं कि इस तरह की हेराफेरी के लिये दिल्ली का मौसम बहुत अनुकूल पड़ता है।

सिद्धान्तों से मैं भी बहुत चिपका हुआ हूँ। लेकिन अखबारों की हालत यह है कि मँहगाई का एक झोंका नहीं सह सके। पिछले साल कुछ बड़े अखबारों ने अपने विज्ञापन- दर बढ़ा दिये तो हमारे जैसे बहुत-छोटे से अखबार मार्केट से आउट हो गये। सरकार की हम जरूर दाद देते रहते हैं जो भले ही कुछ न करे,लेकिन छोटे अखबारों के साथ हमदर्दी जरूर जताती रहती है। तुम्हारी दशा इससे कुछ अलग नहीं है। तुम्हारी लेखनी पर खुश होकर तुम्हें हर साल एक-दो पुरस्कार मिल जाते हैं और इसका अर्थ यह लगा लेना चाहिये कि तुम इससे अधिक और कोई अपेक्षा मत करो।

मेरी सलाह मानो कि अपनी कुटिलता छोड़ दो। और तुम इससे बाज नहीं आते। अभी जब तुम पिटे थे तो जबलपुर नगर संघ चालक दबड़गाँवकरजी ने तुम्हें आश्वस्त किया था कि भविष्य में तुम्हारे साथ ऐसी किसी घटना की पुनरावृत्ति नहीं होगी। बेचारे दबड़गाँवकरजी का सीधा आशय यह था कि अगली बार संघ तुम्हारी रक्षा करेगा और एक तुम हो कि उसका अर्थ यह लगा लिया कि तुम्हारी पहली पिटाई संघ के स्वयंसेवकों ने ही की थी। इसीलिये तो हनुमान वर्मा का कहना है कि हम लोग तुम्हारा जो मरणोपरान्त साहित्य प्रकाशित करेंगे,उसका नाम ‘परसाई ग्रन्थमाला’ न रखके ‘परसाई विषवमन’ रखेंगे। कौन जानता है कि तुम हमें यह मौका दोगे या नहीं या हम लोग ही पहले चल देंगे।

पिटने के बाद तुमने पुलिस द्वारा कुछ न किये जाने की गुहार लगाई। अफसोस है कि शेषनारायण राय के मामले के अनुभव से तुमने कुछ नहीं सीखा। दरअसल ,पुलिस समदर्शी है। अगर कभी तुम किसी पुलिस थाने के सामने से निकले होगे तो एक बडे़ से बोर्ड पर तुमने ‘देशभक्ति और जनसेवा’ लिखा देखा होगा। बात सीधी है। जनसेवा का मतलब होता है-बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय। तुम एक हो और पिटाई करने वाले अनेक एक का साथ देना जन-सेवा नहीं होती। जिस पक्ष के लोग ज्यादा हों उनका साथ देना जनसेवा का प्रतीक है ,और वही देशभक्ति। इतनी छोटी-सी बात तुम्हारी समझ में बहुत पहिले आ जानी चाहिये थी।

तुम्हारा ख्याल है(और भी बहुत लोग ऐसा ही सोचते हैं) कि तुम बहुत अच्छे व्यंग्य शिल्पी हो। मैं भी तुम्हें जान रस्किन की कोटि का समझने लगा था। लेकिन आज किताबें उलटते-पलटते समय तुम्हारी एक किताब ‘हंसते हैं रोते हैं’ हाथ लग गयी। डेढ़ रुपये की तुम्हारी किताब को तुमने मुझे दो रुपये में बेचा था। उस पर तुर्रा यह कि प्रथम पृष्ठ पर यह लिख दिया ‘दो रुपये में भाई मायाराम को सस्नेह’। आठ आना की इस ठगी को तुम व्यंग्य के आवरण में छुपाना चाहते हो।

ज्यों-त्यों करके तुम्हें साहित्य सम्मेलन में लाये। तुमने कुछ अच्छे काम भी किये। लेकिन राजनाँदगाँव सम्मेलन की सबसे बड़ी उपलब्धि तुमने आदरणीय डा.बलदेव प्रसाद जी मिश्र द्वारा दिये गये भोज को माना। सम्मेलन के अध्यक्ष पं. प्रभुदयाल अग्निहोत्री को भी तुमने नहीं छोड़ा। ऐसी स्थिति में तुम साहित्यकारों के बीच कैसे’ पापुलर’ हो सकते हो? इसलिये (श्री हनुमान वर्मा क्षमा करें) हनुमान का ख्याल है कि जिसे तुम व्यंग्य समझते हो ,दरअसल वे चुटकुले हैं।

साहित्य की बात छोडो़। मैं तुम्हें तुम्हारे ही आइने में देखना चाहता हूँ। कुछ ऐसी आदतें हैं जिन्हें तुम या तो बिल्कुल छोड़ सकते हो या सीमित कर सकते हो। यह जरूरी नहीं कि ‘किक’ मिलने पर ही अच्छे साहित्य की रचना की जा सकती है। मैंने ऐसा कुछ नहीं किया। इसके बाद भी श्रीबाल पांडेय ने मुझे अच्छा सम्पादक और कवि मान लिया। यह एक ऐसी सलाह है जिस पर अमल करने के लिये मैं बार-बार तुमसे आग्रह करता रहा हूँ।

तुम्हारे साहित्य का क्या जिक्र करूँ। वह अपने आपमें समृद्ध है और किसी की प्रशंसा का मोहताज नहीं । बहुत से व्यंग्यकार वाक्य के वाक्य उड़ा लेते हैं और स्वनामधन्य अखबारों में छप भी जाते हैं। अगर तुम्हारा साहित्य इस लायक न होता तो वह चोरी क्यों की जाती।

थोड़ा लिखा ,बहुत बाँचना। ५१ वीं जन्मग्रंथि पर मेरा अभिनन्दन लो और नये बरस के लिये कुछ अच्छे संकल्प लो।
तुम्हारा
मायाराम सुरजन

खुले पत्र का खुला जवाब:

मायाराम सुरजन को परसाई का

देशबन्धु,रायपुर
७ सितम्बर,१९७३
प्यारे भाई,
देशबन्धु रायपुर-जबलपुर में तुम्हारा खुला पत्र मेरे नाम पढ़ा।
आखिर हम लोग वर्षगांठों पर एकाएक ध्यान क्यों देने लगे?

तुम अपनी परम्परा से हट गये। तुमने १४-१५ संस्मरण लेख लिखे हैं, उन लोगों पर जो मृत हो गये हैं। इस बार तुमने ऐसे मित्र पर लिखा जो मारा नहीं पीटा गया है। याने तुम्हारी लेखन प्रतिभा तभी जाग्रत होती है जब कोई अपना मरे या पीटा जाये।

मैं जानता हूँ तुम अत्यन्त भावुक हो। मैंने तुम्हारी आँखों में आँसू देखे हैं। बन पड़ा तो पोंछे भी हैं। तुमने भी मेरे आँसू पोंछे हैं। पर हम लोग सब विभाजित व्यक्तित्व (स्पिलिट पर्सनालिटी) के हैं। हम कहीं करुण होते हैं और कहीं क्रूर होते हैं। इस तथ्य को स्वीकारना चाहिये।

पिछले २५ वर्षों से हम लोग मित्र रहे हैं। एक-दूसरे के सुख-दुख के साथी। यार, निम्न-मध्य वर्ग के अलग संघर्ष होते हैं। इसे समझें । अब न्यूजप्रिंट के संकट का कष्ट तुम भुगत रहे हो। लेकिन तुमने’ कल’ की परवाह नहीं की। ५० साल की उमर में तुम ढीले क्योंहो रहे हो?

जहाँ तक मेरा सवाल है-मैं नहीं जानता,मुझे यश कैसे मिल गया।मैंने अपना कर्तव्य किया। पिटवाया पत्रकार मित्रों ने मुझे लगातार छापकर।वर्ना मैं कहीं समझौता करके ‘मोनोपोली’ में बैठ जाता। उन्हें बाध्य किया जाता है कि वे ‘फियेट’ कार खरीदें क्योंकि यह कम्पनी की इज्जत का सवाल है।
मैं कबीर बना तो यह सोचकर कि-
कबिरा खड़ा बजार में लिये लुकाठी हाथ।
जो घर फूँके आपना चले हमारे साथ।।
साथ ही-
सुन्न महल में दियना वार ले
आसन से मत डोल री
पिया तोहे मिलेंगे।
मैं आसन से नहीं डोला तो थोडा़ यश मिल गया। पर तुम्हारा लिखना ठीक है कि साधना और यश के बाद भी मेरा घर चू रहा है। पर यह हम जैसे लोगों की नियति है। गा़लिब ने कहा है-
अब तो दर ओ-दीवार पे आ गया सब्जा-गा़लिब,
हम बयाबाँ में हैं और घर पे बहार आई है।।
तो यह चुनने का प्रश्न है। अपनी नियति मैंने स्वयं चुनी। तुमने भी। मुझे किसी ने बाध्य नहीं किया कि मैं लिखूँ और ऐसा प्रखर व्यंग्य लिखूँ। यह मेरा अपना निर्णय था। जो निर्णय मैंने खुद लिया । उसके खतरे को समझकर लिया। उसके परिणाम भोगने के अहसास के साथ लिया।

जहाँ तक राज्यसभा की सदस्यता का सवाल है,तुम लड़े और हारे। पर तुम विचलित नहीं हुये ,इसका मैं गवाह हूँ। और तुम उसके गवाह हो कि राज्यसभा में मनोनीत होने की पहल मैंने नहीं ,एक बड़े ज्ञानी राजनैतिक नेता ने की थी। मुझे अपने घनिष्ठ मित्र का तार और ट्रंक मिले। मैं गया क्योंकि मित्र का बुलावा था। पर तब तक केन्द्र शासन इस अहंकार में था कि उसने बंगाल जीत लिया ,इसलिये सिद्धार्थ शंकर रे की चल गयी और मेरे समर्थक राजनैतिक पुरुष की नहीं चली। इंदिराजी ने उनसे पूछा था मेरे सम्बन्ध में। पर उन्होंने टालमटोल का उत्तर दिया। वे जानते थे कि उनका अवमूल्यन हो रहा है। और सिद्धार्थ की चल रही है, इसलिये मुझे शिकायत नहीं ,वे भी मेरे लेखक बन्धु हैं।

बात यह है कि जिन्दगी को मैं काफी आर-पार देख चुका हूँ। चरित्रों को मैं समझता हूँ वरना लेखक न होता। मैंने उक्त बात उन महान राजनैतिक नेता से कह दी। उनका जवाब था ,ऐसा तो नहीं हुआ। मुझसे इंदिराजी ने इस सम्बन्ध में बात ही नहीं की।

अब हाल यह है कि लगभग ५०० चिट्ठियाँ भारत भर से मेरे पास आयी हैं। हर डाक से आती जा रहीं हैं। जवाब देना कठिन है पर कुछ जवाब देना जरूरी है। यह यशपाल जी की चिट्ठी है।
प्रिय परसाई जी,
२१ जून की घटना का समाचार १५ जुलाई के दिनमान द्वारा मिला।आपकी व्यंग्य प्रतिभा का कायल वर्षों से हूँ। आपके दृष्टिकोण समर्थक भी हमारे समाज के रुढ़िग्रस्त अन्धविश्वास के क्षय के उपचार के लिये आप अनथक परिश्रम से जो इंजेक्शन देते आ रहे हैं उसके लिये आभार प्रकट करता हूँ। २१ को आपकी निष्ठा और साहस के लिये जो प्रमाण-पत्र आपको दिया गया उसके लिये मेरा आदर स्वीकारें। आज से बीस-पच्चीस साल पहले जब मैं ‘जनयुद्ध’ या अन्यत्र ऐसा कुछ लिखता था तो भारतीय संस्कृति की पीठ में खंजर भोंकने और हिन्दू धर्म भावना के हृदय में छुरी मारने के अपराध में मुझे धमकी भरे पत्र मिलते थे। आपके लिये धमकियाँ पर्याप्त नहीं समझीं गयीं। यह आपके प्रयत्न से अधिक सार्थक होने का प्रमाण है।
इस उम्र और स्वास्थ्य में भी आपके साथ वाक्‌ और विचार स्वतंत्रता के लिये सब कुछ देने और सहने के लिये तैयार हूँ।
-आपका यशपाल
इधर कितनी ही चिट्ठियाँ आयी हैं। संघर्षात्मक भी और भावात्मक भी। एक देवी जी की चिट्ठी आयी है कि हमें क्या अहसास था कि आपके साथ भी ऐसा होगा। पर आप तो लड़ाकू आदमी हैं। फिर वे गा़लिब का शेर लिखती हैं-

ये लाश बेकफ़न असद-ए-खस्ता जाँ की है,
हक आफरत-को अजब आजाद मर्द था।
मैं क्या जवाब देता। मैंने गा़लिब का दूसरा शेर जवाब में भेज दिया-
हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन,
खाक हो जायेंगे हम तुमको खबर होने तक।
इससे उनकी रूमानी भावना को तृप्ति मिली होगी।
फिर मैंने एक को लिख दिया-

काफिले तो बहुत तेज रौ में मगर,
रहबरों के कदम लड़खड़ाने लगे।
मित्र मुझे जीवन में अच्छे मिले,हालाँकि शत्रु मैंने ज्यादा बनाये। पिछले दिनों बीमार बहनोई,जो अब देह त्यागकर गये हैं,की सेवा करते-करते भोपाल में बीमार पड़ा तो रमन कटनी लौटने के पहले मेरे होटल आये। मैं सो रहा था,तो रमन मैंनेजर के पास दो सौ रुपये मेरे लिये जमा करके चले गये। तुम पूछोगे कि बहनोई को स्वर्गीय क्यों नहीं कहते। मुझे पिता की ही खबर नहीं मिली कि वे स्वर्ग में हैं या नर्क में।
तो मित्र ऐसा ही कि -

मैं तो तन्हा ही चला था जानिबे मंजिल मगर,
लोग साथ आते गये काफिला बनता गया।।
यह मंजिल शोषणविहीन,न्यायपूर्ण समतावादी समाज की स्थापना है। इसके लिये मैं प्रतिबद्ध हूँ।

मैं तुम्हारे जीवन संघर्षों को जानता हूँ। तुम्हारी मानसिक पीडा़ओं को भी। मित्र मध्य वर्ग के बेटे होकर भी तुमने इतना किया यह तुम्हारे ही दमखम की बात है। पर अब आगे मत बढ़ाओ। जितना है उसी को सम्भालो और संवरो,तुम अश्री रामगोपाल माहेश्वरी कभी नहीं हो सकते। यह मैंने तुमसे पहले भी कहा था। इस उम्र में योजना बनाकर काम करना चाहिये। पर तुम्हारा और मेरा चरित्र ही ऐसा रहा है कि ५० साल की उमर में २०-२२ साल के लड़के की तरह बर्ताव करते हैं। है न ?

संघर्ष मैंने बहुत किये हैं। मैं १८ वर्ष की उम्र में माता-पिता की मृत्यु के कारण छोटे भाई बहनों का माता-पिता हो गया था।इसलिये संघर्षों से मैं कभी डरा नहीं। जो स्थिति सामने आयी,उससे निपटा। यह जो मामला मेरे साथ गुजरा उसे भी मैं पचा गया। मुझे क्या पता था कि यश लिखने से अधिक पिटने से मिलता है,वरना मैं पहले ही पिटने का इंतजाम कर लेता।
सस्नेह
-हरिशंकर परसाई

Tuesday, July 5, 2016

परसाई के वनलाइनर

1.इस देश के बुद्धिजीवी शेर हैं,पर वे सियारों की बरात में बैंड बजाते हैं.

2.जो कौम भूखी मारे जाने पर सिनेमा में जाकर बैठ जाये ,वह अपने दिन कैसे बदलेगी!

3.अच्छी आत्मा फोल्डिंग कुर्सी की तरह होनी चाहिये.जरूरत पडी तब फैलाकर बैठ गये,नहीं तो मोडकर कोने से टिका दिया.

4.अद्भुत सहनशीलता और भयावह तटस्थता है इस देश के आदमी में.कोई उसे पीटकर पैसे छीन ले तो वह दान का मंत्र पढने लगता है.
5.अमरीकी शासक हमले को सभ्यता का प्रसार कहते हैं.बम बरसते हैं तो मरने वाले सोचते है,सभ्यता बरस रही है.

6.चीनी नेता लडकों के हुल्लड को सांस्कृतिक क्रान्ति कहते हैं,तो पिटने वाला नागरिक सोचता है मैं सुसंस्कृत हो रहा हूं.

7.इस कौम की आधी ताकत लडकियों की शादी करने में जा रही है.

8.अर्थशास्त्र जब धर्मशास्त्र के ऊपर चढ बैठता है तब गोरक्षा आन्दोलन के नेता जूतों की दुकान खोल लेते हैं.

9.जो पानी छानकर पीते हैं, वे आदमी का खून बिना छना पी जाते हैं .

10.नशे के मामले में हम बहुत ऊंचे हैं.दो नशे खास हैं--हीनता का नशा और उच्चता का नशा,जो बारी-बारी से चढते रहते हैं.

11.शासन का घूंसा किसी बडी और पुष्ट पीठ पर उठता तो है पर न जाने किस चमत्कार से बडी पीठ खिसक जाती है और किसी दुर्बल पीठ पर घूंसा पड जाता है.

12.मैदान से भागकर शिविर में आ बैठने की सुखद मजबूरी का नाम इज्जत है.इज्जतदार आदमी ऊंचे झाड की ऊंची टहनी पर दूसरे के बनाये घोसले में अंडे देता है.

13.बेइज्जती में अगर दूसरे को भी शामिल कर लो तो आधी इज्जत बच जाती है.

14.मानवीयता उन पर रम के किक की तरह चढती - उतरती है,उन्हें मानवीयता के फिट आते हैं.

15.कैसी अद्भुत एकता है.पंजाब का गेहूं गुजरात के कालाबाजार में बिकता है और मध्यप्रदेश का चावल कलकत्ता के मुनाफाखोर के गोदाम में भरा है.देश एक है.कानपुर का ठग मदुरई में ठगी करता है,हिन्दी भाषी जेबकतरा तमिलभाषी की जेब काटता है और रामेश्वरम का भक्त बद्रीनाथ का सोना चुराने चल पडा है.सब सीमायें टूट गयीं.

16.रेडियो टिप्पणीकार कहता है--'घोर करतल ध्वनि हो रही है.'मैं देख रहा हूं,नहीं हो रही है.हम सब लोग तो कोट में हाथ डाले बैठे हैं.बाहर निकालने का जी नहीं होत.हाथ अकड जायेंगे.लेकिन हम नहीं बजा रहे हैं फिर भी तालियां बज रही हैं.मैदान में जमीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं ,जिनके पास हाथ गरमाने को कोट नहीं हैं.लगता है गणतन्त्र ठिठुरते हुये हाथों की तालियों पर टिका है.गणतन्त्र को उन्हीं हाथों की तालियां मिलती हैं,जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिये गर्म कपडा नहीं है.

17.मौसम की मेहरवानी का इन्तजार करेंगे,तो शीत से निपटते-निपटते लू तंग करने लगेगी.मौसम के इन्तजार से कुछ नहीं होता.वसंत अपने आप नहीं आता,उसे लाना पडता है.सहज आने वाला तो पतझड होता है,वसंत नहीं.अपने आप तो पत्ते झडते हैं.नये पत्ते तो वृक्ष का प्राण-रस पीकर पैदा होते हैं.वसंत यों नहीं आता.शीत और गरमी के बीच जो जितना वसंत निकाल सके,निकाल ले.दो पाटों के बीच में फंसा है देश वसंत.पाट और आगे खिसक रहे हैं.वसंत को बचाना है तो जोर लगाकर इन दो पाटों को पीचे ढकेलो--इधर शीत को उधर गरमी को .तब बीच में से निकलेगा हमारा घायल वसंत.

18.सरकार कहती है कि हमने चूहे पकडने के लिये चूहेदानियां रखी हैं.एकाध चूहेदानी की हमने भी जांच की.उसमे घुसने के छेद से बडा छेद पीछे से निकलने के लिये है.चूहा इधर फंसता है और उधर से निकल जाता है.पिंजडे बनाने वाले और चूहे पकडने वाले चूहों से मिले हैं.वे इधर हमें पिंजडा दिखाते हैं और चूहे को छेद दिखा देते हैं.हमारे माथे पर सिर्फ चूहेदानी का खर्च चढ रहा है.

19.एक और बडे लोगों के क्लब में भाषण दे रहा था.मैं देश की गिरती हालत,मंहगाई ,गरीबी,बेकारी,भ्रष्टाचारपर बोल रहा था और खूब बोल रहा था.मैं पूरी पीडा से,गहरे आक्रोश से बोल रहा था .पर जब मैं ज्यादा मर्मिक हो जाता ,वे लोग तालियां पीटने लगते थे.मैंने कहा हम बहुत पतित हैं,तो वे लोग तालियां पीटने लगे.और मैं समारोहों के बाद रात को घर लौटता हूं तो सोचता रहता हूं कि जिस समाज के लोग शर्म की बात पर हंसे,उसमे क्या कभी कोई क्रन्तिकारी हो सकता है?होगा शायद पर तभी होगा जब शर्म की बात पर ताली पीटने वाले हाथ कटेंगे और हंसने वाले जबडे टूटेंगे .

20.निन्दा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं.निन्दा खून साफ करती है,पाचन क्रिया ठीक करती है,बल और स्फूर्ति देती है.निन्दा से मांसपेशियां पुष्ट होती हैं.निन्दा पयरिया का तो सफल इलाज है.सन्तों को परनिन्दा की मनाही है,इसलिये वे स्वनिन्दा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं.

21.मैं बैठा-बैठा सोच रहा हूं कि इस सडक में से किसका बंगला बन जायेगा?...बडी इमारतों के पेट से बंगले पैदा होते मैंने देखे हैं.दशरथ की रानियों को यज्ञ की खीर खाने से पुत्र हो गये थे.पुण्य का प्रताप अपार है.अनाथालय से हवेली पैदा हो जाती है.

Monday, July 4, 2016


कार्टून

कार्टून

वन लाइनर

वन लाइनर
‪#‎SaudiArabia‬ सऊदी अरब में आतंकी धमाके पाक आतंकियों ने यह बताने के लिए किये हैं कि दुनिया भर में सऊदी आतंक फाइनेंसिंग का सैंपल रिजल्ट यह है।

जग का मुजरा वाया पुलिया

जग का मुजरा वाया पुलिया

व्यंग्य का युग-ज्ञान चतुर्वेदी

व्यंग्य का युग-ज्ञान चतुर्वेदी