Thursday, July 21, 2016

व्यंग्य लिखना-पढ़ना: क्या बस यों ही?

व्यंग्य लिखना-पढ़ना: क्या बस यों ही?



हिंदी व्यंग्य साहित्य लेखकों और पाठकों की दृष्टि से खासा समृद्ध प्रतीत होता है. छोटी मझोली पत्रिकाओं की घटती आवृत्तियाँ और नियमित बड़ी पत्रिकाओं के लगभग अवसान के बावजूद ऐसा कहना पड़ रहा है तो इसके पीछे अखबारों के दैनिक कालम, साप्ताहिक परिशिष्ट और यदा-कदा निकलने वाले व्यंग्य- विशेषांक हैं. लिखने वालों के लिए स्पेस की कोई कमी है, मुझे तो नहीं लगता. पढ़ने वाले भी हैं, जिसका प्रमाण इनका छपना-बिकना है. उस पर सोशल-मिडिया, वर्चुअल ग्रुप, इन्टरनेट पर साहित्य कोष और व्यक्तिगत ब्लॉग. लिखने–पढने की अनंत संभावना. पर क्या हिंदी व्यंग्य इस अभूत-पूर्व संचार-क्रान्ति का उपयोग कर अपना समुचित विकास कर पा रहा है? क्या बदलता दौर उसमें पूरी तरह धड़क रहा है? कहीं बदलाव का दबाव उसे अपनी साहित्यिक परम्पराओं और मानकों के राजमार्ग से उतर कर भटकाव की पगडंडियों की ओर तो नहीं मोड़ रहा? कहीं वर्तमान व्यंग्य लिखने-छपने की असीम सम्भावनाओं के बीच अति-उत्साह का शिकार होकर केवल तात्कालिकता के जाल में तो नहीं उलझ गया और समय की धार में छुपे शाश्वत मूल्यों के सीप को त्याज्य समझने लगा? व्यंग्य को लेकर इन्हीं सन्दर्भों में कुछ चिंताएं जताई जा रही है इन दिनों. ऐसे कुछ प्रश्नों की पड़ताल अकादमिक बहसों से बचते हुए, केवल व्यंग्य लिखने और पढने वालों के नज़रिए से इस लेख में करने का प्रयास होगा.

व्यंग्य है क्या बला?

व्यंग्य लिखते सब हैं पर क्या समझते भी हैं? पश्चिमी साहित्य में इसके कुछ शास्त्रीय विधान है पर अपने यहाँ कोई सर्व-स्वीकृत परिभाषा नहीं है. मूलतः ये तंज, चुटकियाँ और अक्सर कटु आलोचना है- सामाजिक प्रवृत्तियों, विसंगतियों और कभी-कभी इनके कारक व्यक्तियों की भी. इस हद तक भी कि बिना एक नैतिक स्वर के ये गाली-गलौज के करीब हो जाय. स्थिति की विडम्बना को कुरेदना, कटूक्तियों से विसंगति को उधेड़ देना इसकी प्रकृति है. अभिधा, अतिश्योक्ति, कड़वी मलामत, पैरोडी, कैरिकेचर, उलटबांसी, फैंटेसी जो भी हथियार काम आ जाए उसी से एक आदर्श समाज से चिपटी जोंकों को निकाल फेंकने की कोशिश. इसका एक सिद्ध कारगर हथियार हास्य है. सरस और सरल अंदाज़ में कही गई बात पाठक तक सीधे पहुंचती है, ये सभी साहित्यिक विधाओं के लिए सच है, पर व्यंग्य के लिए विशेष तौर पर क्योंकि इसका लक्ष्य आम पाठक है. व्यंग्य में कथन का सपाटपन और दुरुहता दोनों ही उसे बोझिल और अबूझ बनाती है. अपने कथ्य के अनुरूप मुहावरों और प्रतीकों की रचना कर व्यंग्य का सम्प्रेषण सहज बनाया जाता है. व्यंग्यकार का अंतिम काम हरेक छद्म से पर्दा उठा देना और नंगी सच्चाई को पाठक की दृष्टि के लिए सुलभ बनाना है.

अच्छा व्यंग्य गूढ़ दार्शनिकता नहीं बघारता, कम शब्दों में पाठकों की ज़िन्दगी पर असर डालने वाली विसंगतियों पर चोट करता है – एक तरह से पाठकों की प्रतिक्रिया को ही शब्द देता है. ये रोजमर्रा की घटनाओं को तिर्यक दृष्टि से परख कर उनकी परतें उधेड़ कर सामने रखता है और पाठक की क्षोभ या उत्तेजना भरी प्रतिक्रिया को एक अर्थपूर्ण गाम्भीर्य प्रदान करता है. अच्छा व्यंग्य पाठक के मनोविज्ञान को धनात्मक ऊर्जा से भरता है और सामाजिक मूल्यों को स्वीकार या खारिज करने की निर्णय-प्रक्रिया में तार्किक संगति लाता है. परन्तु ये सब तभी संभव होता है जब व्यंग्यकार स्वयम भी अपने लेखकीय सरोकारों के प्रति सजग हो, परम्पराओं और तात्कालिक स्थितियों का ज्ञान रखता हो और अपने आसपास हो रहे परिवर्तनों का सूक्ष्म अवलोकन करता हो. न केवल पाठकों की संवेदना से जुड़ने का माद्दा रखता हो बल्कि अभिव्यक्ति के स्तर पर पूरी तरह ईमानदार भी हो.

विधा या शैली

कुछ लोगों की जिद-सी है कि व्यंग्य कोई विधा नहीं एक शैली भर है जो जरुरत भर अभिव्यक्ति के सभी माध्यमों में मिलाई जाती है. ये सही है कि लगभग हर विधा में व्यंग्य अंतर्धारा के रूप में बहाया जा सकता है क्योंकि ये करुणा का नाटकीय उदघाटन करने में सक्षम है, पर व्यंग्य को कथा-सूत्रों या विशुद्ध निबंधों में ढाल कर रचना के जिस स्वरूप का सृजन हिंदी व्यंग्य की हमारी अग्रज पीढ़ी ने किया और इसमें निरंतर सार्थक लेखन कर उसे एक अलहदा रंग दिया उसे क्यों एक विधा न माना जाए, इसका भी सुस्पष्ट जवाब किसी के पास नहीं. पारंपरिक तौर पर व्यंग्य निबंध, प्रतीकात्मक व फैटेसी युक्त कहानियों या प्रयोगात्मक आलेखों के रूप में लिखे जाते हैं. सामयिक सन्दर्भ लेकर कटाक्ष भरी टिप्पणियाँ इनकी शक्ति हैं.भारतेंदु से चलकर ज्ञान चतुर्वेदी तक आते-आते व्यंग्य के गद्य रूप का, चाहे अनगढ़ ही कह लें, मानक तो बन ही चुका है. निबंधों के रूप में खूब लिखा जाकर ये व्यंग्य लिखने वालों का प्रिय माध्यम है. परसाई और शरद जोशी का विशाल व्यंग्य-संसार इसे विधा न मानने वालों को करारा ज़वाब है. इनकी सहज-सरल पठनीयता और सरस हास्य की उपस्थिति के कारण पाठक को व्यंग्य अपना-सा लगता है. अगर वो पाठकों के प्यार से सींचा हुआ एक स्वस्थ पौधा है तो उसे बड़ा करना और उसकी शाखाओं को फलने-फूलने का अवसर देना साहित्य के लिए जरूरी नहीं? बदलते वक़्त के साथ साहित्य का रूप बदलता है, पर इतना तो नहीं कि सौ-डेढ़- सौ शब्दों की रचना को उपन्यास कह दिया जाए. हर विधा की अपनी प्रवृत्ति होती है. व्यंग्य किसी भी शैली में लिखा जाय, अपने स्पष्ट तेवर लिए होता है, बशर्ते सायास न हो. इसलिए अब ये जिद भी जरूरी है कि व्यंग्यकार जब किसी विषय को व्यंग्यात्मक लहजे में व्यक्त करने के लिए चुन कर कहानी, कविता या उपन्यास किसी भी विधा में लिखे, उसे व्यंग्य ही कहा जाए, उसके आगे कथा, निबंध, आलेख या उपन्यास के पुच्छल्ले न जोड़े जाने पर बहस शुरू हो.

 हम तो व्यंग्य ही लिखेगा...

 मेरे विचार में व्यंग्य एक नैसर्गिक प्रतिभाजन्य विधा है, जिसे साधना कठिन है. व्यंग्य सायास लिखा ही नहीं जा सकता, ऐसा करने वाला पकड़ा जाता है. स्वभाव से ही तंज करने वाले, वक्रोक्ति में ही बोलने वाले समाज में कई मिल जाते हैं. कुछ के सोचने का अंदाज़ ही वही होता है, चाहे बोलते न हों. इनमें साहित्यिक-प्रतिभा संपन्न लोग व्यंग्य लिखते हैं. चुटकुले और वन-लाइनर गढ़ने में विट की इन्तहा देखी जाती है. पर अगर मिजाज़ व्यंग्य लिखने का न हो तो महज इस वजह से व्यंग्य लिखने की जिद न किया जाय कि आपका लिखा व्यंग्य के कालम में छप तो जायेगा ही और आप ही जैसे कई और भी तो लिखे ही जा रहे हैं. कुछ नहीं तो व्यंग्य की ‘छवि’ का ही ध्यान रख लिया जाय कम से कम.

 पाउच में व्यंग्य

लघु व्यंग्य भी हमेशा से लिखे जाते रहे हैं. पर इन दिनों अधिकांशतः व्यंग्य के नाम पर ऐसी सामयिक टिप्पणियाँ लिखी जा रही हैं जो समाचार खण्डों का ही दूसरा संस्करण लगाती हैं. दो चार चुटीले वाक्य, जिन्हें पंच कहने की प्रथा है, डाल कर निश्चित शब्द-सीमा में खानापूर्ति सा कर दिया जाता है. इस व्यंग्य में कोई शाश्वत सत्य उद्घाटित होने की अपेक्षा नहीं की जाती. पढ़ा, हँसे और तह कर के रख दिया. यहीं सायास व्यंग्य लेखन की नींव पड़ती है. खबर का एक सफा लिया जाता है, उसपर चंद नए पुराने मुहावरे और एकाध तंज करने वाले जुमले जोड़ कर एक कच्ची-पक्की रचना पका ली जाती है. तर्क ये कि पाठक को इससे बड़ा पढ़ने की फुर्सत नहीं. तथ्य ये है कि अखबारों के व्यावसायिक दबाव अब साहित्यिक, वैचारिक आलेखों की जगह विज्ञापनों और बाज़ार-प्रेरित सामाजिक मूल्यों को तरजीह देने वाले कालमों को प्राथमिकता देते हैं. व्यंग्य कालम भी इसी तर्ज़ पर थोड़ी जगह पा जाते हैं. वहां लिखने वाले नए ज़माने के लेखक का व्यावसायिक उद्देश्य तो पूरा हो जाता है, पर धीरे-धीरे उसे ये भी यकीन हो आता है कि उसने जो लिखा वह व्यंग्य ही है. हालांकि कई लोग इस तंग दायरे में लिखते हुए भी सतर्क हैं और अपने व्यंग्य धर्म का भरसक निर्वाह कर रहे हैं, पर ज़ियादातर अपने लिखे को मनवाने की जिद है. क्या इस बंधन में घुटते सच्चे लेखक को विद्रोह नहीं करना चाहिए? इस सन्दर्भ में पचास-साठ के दशक का यादगार हिंदी फिल्म संगीत याद आता है जब गीत पहले लिखे जाते थे और बाद में संगीत-बद्ध होते थे. आगे ये प्रक्रिया उलट गई और परिणाम आपके सामने है. अब या तो व्यंग्यकार इतना प्रतिभाशाली हो कि अपनी बात सीमित स्पेस में ही मुक़म्मल कर पाठक की संवेदना को इतना झकझोर दे कि पाठक के जेहन में ही उसके कथ्य का पूरा खाका उभर आये. ये हमेशा मुमकिन नहीं है, इसलिए लेखक को इतनी आज़ादी मिलनी चाहिए कि वह अपने कथ्य के हिसाब से रचना का आकार तय करे और इतना करे कि रचना उपयुक्त भूमिका के साथ विषय के साथ न्याय करते हुए आगे बढे और अपने उपसंहार तक पहुंचे. शब्दों की मितव्ययिता तो व्यंग्य का मूलभूत स्वभाव ही है.

ताज़ा-ताज़ा माल

आकार के अलावा लेखक की एक बड़ी चुनौती विषय चयन की है. सामयिक सन्दर्भ से जुड़े रहना व्यंग्यकार की नियति है. पर आमतौर पर इसे ही अंतिम सच मानकर ज़ियादातर राजनीतिक उथल-पुथल को ही केंद्र में लिया जा रहा है. सामाजिक सरोकार भी नितांत सामयिक और स्थानीय आधारों पर चुने जाते हैं. परसाई और शरदजोशी ने राजनीति कटाक्ष खूब किये पर आज के लेखन से उनके यहाँ फर्क इतना है कि तब तात्कालिक स्थितियों में कुछ शाशवत सन्दर्भ जुड़े होते थे. अब कटाक्ष इस हद तक तात्कालिक, व्यक्तिपरक, सतही और सपाट होने लगे हैं जैसे राह चलते फिकरे कसे जा रहे हों. साहित्य-लेखक भी अगर फिक़रेबाज़ी पर उतर आये तो समाज में गंभीर विमर्श के लिए आधार नहीं रह जाते. छपे हुए अक्षर परम्परा से वैचारिक प्रामाणिकता लिए हुए माने जाते हैं. विषय की ताज़गी के बहाने हम किसी भी मुद्दे की गहरी पड़ताल से बचने की कोशिश भी करते हैं और उसे छूते हुए निकल जाने की आसानी को चुनते हैं.

भाखा बहता नीर

वैसे रचना की भाषा तो उसके कथ्य से निधारित होती है. चूँकि सन्दर्भ तात्कालिक होते हैं, उस पर भी टिप्पणीनुमा, वर्तमान व्यंग्य खिचड़ी बोलचाल की भाषा अपना रहा है. व्यंग्य की भाषा को ‘भाखा बहता नीर’ के तर्ज़ पर चलाने के तर्क दिए जा सकते हैं, पर इसकी निश्चित ही एक सीमा है. आंचलिकता, देशज शब्द और हिंदी के दायरे में ही रहकर कुछ भाषाई प्रयोग तो सभी विधाओं में हैं. पर व्यंग्य में हिंदी में बोलचाल या प्रचलन को बहाना बनाकर उसमें अंग्रेजी शब्दों का प्रदूषण बढाया जा रहा है. व्यंग्य लिखना फिल्म बनाना नहीं है जहां यथार्थ को दिखाने का फार्मेट भिन्न है. बाज़ार के दबाव में रेडियो, टीवी और कुछ अन्य मीडिया माध्यमों की भाषा के संस्कार इस तरह बदलते हैं पर साहित्यिक अभिव्यक्ति पर ऐसे किसी दबाव का कोई अर्थ नहीं. ये भी सच है कि भले आम बोलचाल की भाषा पर लेखक का नियंत्रण न हो, अपनी भाषा पर तो है, अपनी भाषा के प्रति लेखक का स्पष्ट दायित्व है. एक मंझी हुई भाषा में एक अच्छी रचना देकर लेखक अनजाने कई पाठकों की भाषा को संस्कारित कर रहा होता है.

बात पाठक को पहुंचे

व्यंग्य लिखना एक बेहद ज़िम्मेदारी-पूर्ण काम है. यहाँ स्वांतः सुखाय लिखने की छूट नहीं है. पाठक को लक्ष्य कर उसके सरोकार से जुड़े मुद्दों पर अपना कथ्य गढ़ना और उससे सीधे मुख़ातिब होकर बात कहनी है. अंतिम लक्ष्य पाठक को रिझाकर उसी के हित की बात उस तक पहुंचाना ही है. सटीक सम्प्रेषण ही लेखन की सबसे बड़ी चुनौती है. व्यंग्य में वक्रोक्ति होती है, अभिधा-व्यंजना, विट- आइरनी वगैरह का भी स्पर्श होता है, जिससे बात को सहज ग्राह्य रूप में कहना मुश्किल होता है. हास्य यहाँ मददगार होता है. बल्कि हास्य और व्यंग्य का जितना एकात्म समीकरण रचना में हो, रचना का सम्प्रेष्ण उतना ही गहरा होता है. आम तौर पर हास्य को व्यंग्य से अलग कर के देखा जाता है, बिलकुल नपनी लेकर उनका प्रतिशत नापा जाता है. तथाकथित विशुद्ध व्यंग्य की दुहाई दी जाती है, जिसे पारिभाषित करना असंभव-सा है. सरस हास्य के जरिये अपने व्यंग्यात्मक कथ्य को उभारना चाहिए. बिना हास्य व्यंग्य कड़वे घूँट जैसा है. लेखक को रचना में चमत्कार पैदा करने की कोशिश में सायास ‘पंच’ डालने से बचना चाहिए. लिखने के बाद खुद उसका पाठक बन कर उसकी पठनीयता जांचें. लय में अटकावों को सुलझायें, वाक्य-विन्यास में सहजता और सरलता रखने का प्रयास रहे. पर सबसे ज़रूरी ये है कि रचना का मूल कथ्य पूरी रचना में व्याप्त हो और अंत तक आते-आते पाठक उसे अंतर्मन में महसूस करे. कठिन ,मगर ईमानदारी और सच्ची समझ से इसे साधा जाय तो परसाई, शरद, श्रीलाल शुक्ल और ज्ञान चतुर्वेदी की ज्यादातर रचनाओं की तरह अपनी रचना को भी लगभग मुक़म्मल बना लेना संभव है.

व्यंग्य की क़िस्में

इन दिनों व्यंग्य कई रूपों में प्रचलित एवं स्थापित है. सपाटबयानी, अव्यंग्य, कुव्यंग्य, खालिस चुटकुले, हलकी टिप्पणियाँ वगैरह. अखबारों में इन तमाम रूपों को व्यंग्य के अंतर्गत जगह पाते देखा जा रहा है. इससे नए और व्यंग्य के क्षेत्र में आने को इच्छुक लेखक भ्रमित हो रहे हैं. इस भटकाव में लघु व्यंग्यों की एक प्रभावी और ज़रूरी शैली मात खा रही है. एक-एक पंक्ति का व्यंग्य सफलतापूर्वक सोशल मीडिया के जरिये अखबारों में भी जगह पा रहा है. ये एक स्वस्थ परम्परा है, पर इसके लिए जो प्रतिभा और विट चाहिए वो हर लिखने वाले में नहीं है. कई तो देखा-देखी मैदान में कूदे हैं, क्योंकि सोशल मीडिया पर सबका अपना व्यक्तिगत स्पेस है. इससे ये आश्वस्ति मुश्किल है कि धीरे-धीरे एक पंक्ति या एक पैरा का व्यंग्य चुटकुलों के दायरे में नहीं पहुँच जाएगा. जैसे अच्छे कार्टून का कैप्शन बेहतरीन व्यंग्य की उत्पत्ति करता है, अच्छे व्यंग्यकार की चुनौती यही होनी चाहिए कि बिना रेखाचित्र के ही अपने सृजन में वही प्रभावोत्पादकता लाने का अभ्यास करे. व्यंग्य निश्चित तौर पर सोद्देश्य लेखन है, केवल मनोरंजन या प्रहार इसका उद्देश्य नहीं है.

आलोचना ??

आलोचना को लेकर हिंदी व्यंग्य की दुनिया में खासा रोना पीटना मचा रहा है. तथाकथित साहित्यिक मुख्य- धारा की आलोचना ने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया, अधिक से अधिक समीक्षाओं तक व्यंग्य पर विमर्श सीमित रहा है. इसलिए स्वयं व्यंग्य की दुनिया में से ही आलोचक उभर रहे हैं. इससे कुछ असमंजस की स्थिति भी आई है. व्यंग्य में अच्छा और बुरा लेखन क्या है इसे लेकर विरोधाभासी निष्कर्ष निकलते दिखते हैं. उधर सोशल मीडिया ने रचना समीक्षा की अलग धारा बहाकर रचनाओं की गुणवत्ता को चंद ‘लाइक’ से तोलना शुरू कर दिया है. यहाँ हर रचनाकार का आत्म-मुग्धता की छत के नीचे अपना निजी ‘स्पेस’ है, जहां तक तटस्थ आलोचना की पहुँच नहीं है. खैर ये स्थिति सभी विधाओं के साथ हो सकती है पर उनके लिए आलोचना का एक परम्परागत स्थापित तंत्र है, जो व्यंग्य साहित्य में कभी नहीं रहा. इसलिए अब व्यंग्य में आलोचना को गंभीरता से लेने का समय है ये. एक सार्थक और गंभीर बहस शुरू हो. व्यंग्य के दोनों अतिवादी रूपों- एक सीमित दायरे में पठित-चर्चित आत्ममुग्ध लेखन और छप-छप कर स्वयंसिद्ध व्यंग्य लेखन को अपने खोलों से बाहर आकर आत्म-समीक्षा करने का आवाहन हो. आलोचना हिंदी व्यंग्य का एक स्तरीय, सरोकारी पर लोकप्रिय मानक सामने लाये जिसपर आधारित कर वर्तमान और अगली पीढियां सार्थक रचना करें. व्यंग्य विमर्श प्रजातांत्रिक हों, विचारों में अंतर्विरोधों को मिटाने और असुविधाजनक सवालों को टालने की बजाय उनका जवाब ढूँढने की कोशिश हो.

पीढियां ..

व्यंग्य का सबसे अधिक नुकसान उसे लिखने वालों के चलताऊ रवैये ने किया है. इसलिए अपने रचना कर्म को गंभीरता से लेने का आवाहन जुरुरी है. अखबारों में लिखने का एक निश्चित सा फार्मेट बना लिया गया है. उसमें प्रयोगों, साहित्यिकता और गंभीर विषयों से परहेज किया जाता है. सम्पादक आमतौर पर सीधे-सीधे ये कहते पाए जाते हैं कि हम तो ऐसा छापते हैं, सो आप ऐसा ही लिखें. कुछ शैलियाँ मानक मान ली गई हैं, या कहें कुछ लेखकों ने उस तथाकथित शैली को साध लिया है जो इन दिनों व्यंग्य कहला रहा है. सम्पादक व्यंग्य के विकास में अपनी ज़िम्मेदारी ढंग से निबाहें तो व्यंग्य प्रतिभाओं को आगे बढ़ने का अवसर मिले. नई प्रतिभाओं को सही रास्ता पुराने लेखक बताएं और अगर उन्हें खुद मालूम न हो तो रास्ते से हट जाएँ. वे लोग जो दूसरी विधाओं से व्यंग्य में कूद रहे हैं वे भी इसे आसान न समझें. ये कर्म तो ऐसा है कि सोच से कलम तक आते-आते कथ्य में झुर्रियां पड़ जाती हैं. समाज की विरूपताओं को कुरेद-कुरेद कर छलनी करता व्यंग्य किसी विषय पर चिन्तन और रचना प्रक्रिया में खासी वयस्कता की मांग करता है. इसलिए यहाँ व्यंग्यकारों की पीढियां हो सकती हैं, जिनमें नई पीढी को चाहें तो युवा पीढी कह लें, हालांकि ये संभव है कि नई पीढी में खासे उम्रदराज़ लोग भी आ जाएँ. व्यंग्य को सामाजिक परिवर्तनों के दौर में बाँट कर परखा जा सकता है क्योंकि ये साहित्यिक प्रवृत्तियों में नहीं बंधता. वो शैलियों में भी नहीं बंधता यानी रचनात्मकता के अलग-अलग दौरों में उसका अंदाज़ बदलता रहता है. फिर भी ये फिल्मी गीतों वाला मामला नहीं है कि कभी गोल्डन एरा था और अब यो- यो हनी सिंह हैं. उधर कविता में पीढ़ियों का अंतराल अक्सर साफ़ दीखता है, क्योंकि वह अनुभूतियों की अभिव्यक्ति है. एक मुशायरे में परम्परानुसार आखिर में पढ़ने वाले बुज़ुर्ग शायर ने युवा शायरों के अद्भुत कलाम पर हुई घनघोर वाह-वाह के बाद पढ़ने से ही मना कर दिया कि उनकी ग़ज़लों के ख़याल इन ताज़ा कलामों के मुकाबले बेहद पुराने हैं. कविता में भी नई उम्र की अभिव्यक्तियाँ ताज़ा लुत्फ़ से भरी होती हैं. पर गद्य विधाओं में संगीत साधना की तरह रचनात्मकता पकती और प्रगाढ होती है. पर व्यंग्य में ज़रा सी छूट ये मिल जाती है कि उसका एक तात्कालिक स्वरूप भी होता है. कालमों में सामयिक घटनाओं पर चुटीली टिप्पणियों को भी व्यंग्य कहने का रिवाज़ है. इसके लिए अनुभव से ज़्यादा विट की ज़रूरत है क्योंकि पर जब व्यंग्य की साहित्यिक परम्परा से जुड़ने की बात आती है तो सामने परसाई, शुक्ल, जोशी, त्यागी और चतुर्वेदी मानक के तौर पर आ खड़े होते हैं. यहाँ पीढ़ियों का अंतराल गायब भी हो जाता है. इन व्यंग्यकारों के हर्फ़-हर्फ़ जवान हैं, आज के युवाओं की आवाज़ से अलग नहीं.

सावधानी हटी.....

एक बात तो तय है कि व्यंग्य लिखने वाले के विषय चुनाव पर तात्कालिकता, सनसनी, राजनीतिक पक्षधरता और बाजारवाद का प्रभाव है. इसके अलावा सूचना-क्रान्ति से गद्य-लेखन में छाये आधिक्य और अनाम-अदृश्य पाठकों की विशाल संख्या के भ्रम का जाल भी है. लेखक एक व्यामोह में फंसा है. उसका अधिकाँश समय निरर्थक शब्द जालों को पढ़ने-सुलझाने में जाया हो रहा है. वह इतना सब कुछ देख-सुन- पढ़ कर खुद को एक प्रतियोगिता में फंसा पा रहा है. मुख्य धारा में आने की ज़द्दोज़हद और जल्दी में अपनी रचना प्रक्रिया को पकने  देने का समय नहीं उसके पास. ये मुख्य-धारा बहती कहाँ है उसे इसका भी अंदाज़ा नहीं. सोशल मीडिया और दीगर समूहों के सहरा  में वो भटक जाता है- कितने तो समूह हैं- कितने विमर्श हैं- उतने ही समारोह-सम्मलेन- गोष्ठियां और पुरूस्कार-सम्मान आदि. त्वरित संचार के इस युग में उसे ठहर कर अपना कुछ सोचने का वक्त नहीं मिलता और खबरों के बोझ तले पिछड़ जाने के भय से वह कच्ची-अधपकी रचनाएं लेकर इस भंवर में कूद पड़ता है. उसके विषय ज़माने की तरह ही भटके हुए, तात्कालिक और सनसनी महत्त्व के होते हैं. छपे हुए को ही मानक समझ कर वह भी छप भर जाने की अंधी दौड़ में लग जाता है. ये तय न कर पाने से कि उसे कहना क्या है उसका कथ्य उलझा हुआ-सा, विरोधाभासी जुमलों से लबरेज़ होने लगा है. वह विवश-सा है, क्योंकि विषय उसके मन से चुने न जाकर उसपर थोपे जा रहे हैं, जो व्यंग्य के विषय ही नहीं उन्हें भी तीन चार सौ शब्दों में बरत डालना, छप जाने के आश्वासन पर उसे बुरा सौदा नहीं लगता. पर इससे हिन्दी व्यंग्य साहित्य के कूड़ेदान में योगदान के सिवा कुछ नहीं हो रहा उसे इसका अहसास भी नहीं. क्या इस स्थिति को देख-समझ कर आज के व्यंग्यकार को चेत नहीं जाना चाहिए? अपने व्यंग्य धर्म के हित में अनुकरण या भेडचाल से बचते हुए क्या उसे मात्र ‘अपनी’ रचनात्मक अभिव्यक्ति को ही सामने रखें की जिद नहीं रखनी चाहिए? एक दिन जब यही प्रश्न इतिहास पूछेगा तो जवाब नहीं सूझेगा. अब इस बहस को भी ख़त्म करने की ज़रूरत है कि व्यंग्य विधा है या नहीं. व्यंग्य को लघु, सामान्य और विस्तृत श्रेणियों में रखा जाय न कि दूसरी विधाओं के वर्णसंकर उत्पाद के तौर पर. व्यंग्य अगर व्यंग्य हो तो केवल व्यंग्य कहलाये और व्यंग्य है या नहीं इसकी जांच के लिए क्लिष्ट शास्त्रीय पैमानों की जगह उसकी पठनीयता, सामाजिक सरोकार, तंज, विट और मानवीय दृष्टिकोण जैसे मूलभूत आधार ही लिए जाएँ. चुटकुलों से अलग दिखने के लिए लघु व्यंग्यों को इतना आधार पर्याप्त होगा. सपाटबयानी, सतही टिप्पणी और व्यक्तिगत आक्षेपों को कतई व्यंग्य न कहा जाय. सामयिकता को व्यंग्य में उसी हद तक स्वीकारा जाए, जहां उसमें कोई शाश्वत तत्व झलक जाए. व्यंग्य की दूकानों पर छापा मार कर नकली सामन की जप्ती हो और उन्हें एक सबल और सुस्पष्ट आलोचना तंत्र के जरिये चिन्हित कर हाशिये पर फेंका जाय.

नवोदित, युवा हैं हम.. थोड़ा आशावाद

पत्र-पत्रिकाओं की कमी, आलोचना-समीक्षा की उदासीनता और ढेरों लिख कर छपने को उत्सुक अधिकाँश नवोदितों द्वारा व्यंग्य के नाम पर बस ‘छपनीय’ लेखन के कारण हिंदी व्यंग्य में अराजक-सी देखने वाली स्थिति अभी तक तो मुझे निराशाजनक नहीं लगती. साहित्य की हर विधा में बदलते दौर में रचनाकारों द्वारा खुद को ढालने की प्रक्रिया में ऎसी स्थिति देखी जाती है. व्यंग्य-संसार में भी एक ओर छपने के सिकुड़ते दायरों और दूसरी ओर इन्टरनेट पर लिखने-पढ़े जाने की असीम सम्भावनाओं के विरोधाभासी परिदृश्य में अपने लेखन का तालमेल बैठाने की जद्दोज़हद चल रही है. इतने लिखने वाले कभी भी एक साथ सीन पर मौजूद नहीं थे. ये भी न मानने की कोई वज़ह नहीं कि ये सब सोद्देश्य यहाँ नहीं आये. इन्हें बस परम्परा से जुड़े रहने का माहौल देने की जरूरत है. वे व्यंग्य क्यों लिख रहे है इसका एक सुचिंतित तर्क है उनके पास, पर ये भ्रम भी है व्यंग्य के नाम पर कुछ लिख भर देने से पाठक तैयार मिल जाते हैं. दो-चार जगह छपने के बाद ये भ्रम यकीन में बदलने लगता है. किसी और को पढने की जरूरत नहीं समझते. कुछ समान-धर्मा लेखकों के बीच उठ-बैठ कर ही साहित्यिक पिपासा का शमन करने लगते हैं. फेसबुक पर अपनी रचनाओं पर प्रतिक्रियाओं को देख भी अपने लेखन के प्रति आत्म-मोह पैदा होता है. कुछ प्रमाण-पत्र बांटने वाले गुटों ने भी ऐसे भ्रमों की ज्वाला में समिधा डाली है. नए लेखक अच्छा साहित्य पढ़ें, सभी विधाओं में से चुन-चुन कर पढ़ें तो एक सम्यक दृष्टि पैदा हो. अग्रज लेखकों की रचनाएं मॉडल की तरह न अपनाएं बल्कि पढ़कर विषय पर उनके ट्रीटमेंट से सीख लें. फिर कलम पकड़ें. बुरा लेखन हमेशा हाशिये पर ही नहीं जाता, बहुत अधिक मात्रा में हो तो अच्छे लेखन पर  फफूंद की भाँति जम जाता है. फिर बुरे लेखन में ये जिद पैदा होने लगती है कि अच्छे लेखन की परिभाषा करने वाले तुम कौन? ये वायरस हिंदी व्यंग्य की आबोहवा में घुसने लगा है. पर मुझे यकीन है कि इस वायरस का टीका भी हमारी अपनी व्यंग्य परम्परा में ही है.

एक साहित्यिक विधा के तौर पर पनपने के लिए व्यंग्य का ये बेहतरीन समय है. ढेरों नई प्रतिभाएं, अनुभवी लेखकों का नए उत्साह से व्यंग्य में उतरना, हास्य-व्यंग्य कथा और उपन्यासों के क्षेत्र में बढ़ता काम और इस सारे काम को एक विशाल पाठक वर्ग तक पहुंचाने के लिए इन्टरनेट और पत्र-पत्रिकाओं का बढ़ता स्पेस. व्यंग्य की युवा पीढ़ी बेहद प्रतिभा संपन्न है. उसकी दृष्टि की पहुँच दूर तक है. संचार-क्रान्ति उसे पल-पल की खबर देकर उसकी संचेतना को सचेत और समृद्ध करती है. विडंबनाओं के सभी पह्कुओं की पड़ताल करने को उसके पास एक से एक औज़ार हैं. अपने समय को व्यक्त करने में व्यंग्य इन युवा लेखकों की अभिव्यक्ति की धार को और पैना करता है तो खुद व्यंग्य भी उनके हाथों नए नए प्रयोगों के पहियों पर नई-नई दिशाओं की खोज करता है. इसलिए आशावाद को फलने-फूलने देने की जरुरटी है. साथ ही हिंदी व्यंग्य साहित्य की हवेली को समय समय पर झाड-पोंछ कर यहाँ-वहां जैम रहे फफूंदों को साफ़ भी करते रहना होगा ताकि नई प्रवृत्तियाँ भी ढंग से अपनी जगह टिक कर इसकी परम्परा-जन्य भव्यता में अपना अस्तित्व जोड़ पायें.
 

1 comment:

  1. ek shaandar aalekh! bahut hi bariki se parsthition ka vishleshan kiya gya hai! kai mehtvpurn jaankari uplabhdh karaane liye lekhak ko sadhuwad!

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