Thursday, July 21, 2016

व्यंग्य-उपन्यास कहलाने के लिए उसमें कितने प्रतिशत व्यंग्य होना आवश्यक है?- सुरेश कांत


कुछ दिन पहले एक मित्र ने जिज्ञासा व्यक्त की थी कि किसी उपन्यास को व्यंग्य-उपन्यास कहलाने के लिए उसमें कितने प्रतिशत व्यंग्य होना चाहिए? उन्होंने एक जिज्ञासा और की थी कि कथात्मक होना व्यंग्य के लिए घातक है या साधक, लेकिन उसके बारे में फिर कभी|

मित्र द्वारा यह जिज्ञासा एक वरिष्ठ व्यंग्यकार द्वारा अपनी टाइमलाइन पर पोस्ट किए गए अपने नए शुरू किए गए उपन्यास के अंश के संदर्भ में की गई थी| वरिष्ठ व्यंग्यकार ने इस बारे में अपनी राय व्यक्त करते हुए कहा था कि तीस-पैतीस प्रतिशत व्यंग्य होने पर उपन्यास व्यंग्य-उपन्यास हो जाता है| उनका आशय स्पष्ट था कि किसी भी व्यंग्य-उपन्यास में पूरा व्यंग्य नहीं होता, बीच-बीच में उसमें कथानक सामान्य रूप से भी चलता है|

मैं पूरी विनम्रता के साथ उनसे असहमत होने की अनुमति चाहता हूँ| क्योंकि उनके फार्मूले को मानें, तो बहुत सारे ऐसे उपन्यास व्यंग्य-उपन्यासों की श्रेणी में गिनने पड़ेंगे, जो वस्तुत: व्यंग्य-उपन्यास नहीं हैं| खासकर किसी व्यंग्यकार द्वारा लिखे गए व्यंग्येतर उपन्यास| नरेन्द्र कोहली इसके सर्वोत्तम उदाहरण हैं| उनके सभी पौराणिक उपन्यासों में बीच-बीच में जाने-अनजाने उनका व्यंग्यकार भी टहलता हुआ चला आता है और खासकर उनके संवादों में अपनी छाप छोड़ जाता है| श्रीकृष्ण के जीवन पर आधारित उनके उपन्यास ‘वासुदेव’ में तो एक पात्र का नाम ही अर्जुन सिंह है, जो तत्कालीन शिक्षा-मंत्री अर्जुन सिंह पर व्यंग्य करने के लिए ही आया है| गीता पर आधारित उनके नवीनतम उपन्यास ‘शरणम्’ में भी गांधारी, धृतराष्ट्र, संजय आदि प्राय: सभी पात्रों के अनेकानेक संवाद वक्रतापूर्ण होने के कारण व्यंग्यात्मक हैं और उनकी मात्रा तीस-पैंतीस प्रतिशत तक भी हो सकती है| लेकिन उन्हें तथा ऐसे अन्य अनेक उपन्यासों को व्यंग्य-उपन्यास नहीं माना जा सकता।

मेरे विचार से किसी उपन्यास को व्यंग्य-उपन्यास होने के लिए उसका शत-प्रतिशत व्यंग्यात्मक होना आवश्यक है| उसमें पूरा व्यंग्य होगा, तभी वह व्यंग्य-उपन्यास होगा।

लेकिन शत-प्रतिशत का मतलब यह नहीं कि उसका हर शब्द या वाक्य व्यंग्य से सराबोर हो| शत-प्रतिशत का मतलब है कि उसका समग्र प्रभाव व्यंग्यात्मक हो| शब्द तो अपने आपमें कोई भी व्यंग्यात्मक नहीं होता| खुद ‘व्यंग्य’ शब्द व्यंग्यात्मक नहीं है| ‘व्यंग्य’ शब्द पढ़-सुनकर व्यंग्य का कुछ भी रस या आनंद नहीं आता| कई बार तो व्यंग्य में आने वाले वाक्य के वाक्य व्यंग्यात्मक नहीं होते| लेकिन वे शब्द या वाक्य आगे आने वाले ऐसे किसी प्रासंगिक शब्द/शब्दों या वाक्य/वाक्यों की ओर ले जाते हैं जो व्यंग्यात्मक होता/होते हैं और फिर वे व्यंग्यरहित शब्द या वाक्य व्यंग्यात्मक शब्दों या वाक्यों के साथ मिलकर एक व्यंग्यात्मक प्रभाव उत्पन्न कर देते हैं| मिलकर वे सभी व्यंग्यात्मक हो जाते हैं। मिलकर वे समग्र परिदृश्य को व्यंग्यात्मक बना देते हैं| मिलकर वे सारे के सारे, शत-प्रतिशत व्यंग्य में बदल जाते हैं।

कुछ उदाहरणों से बात और स्पष्ट हो सकेगी| ये उदाहरण मैं केवल अपनी लिखने की मेज पर तत्काल उपलब्ध व्यंग्य-उपन्यासों में से दे रहा हूँ, इसका कोई और मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए।

1968 में छपकर आया अभी तक का महानतम व्यंग्य-उपन्यास ‘राग दरबारी’ इस तरह शुरू होता है :
“शहर का किनारा| उसे छोड़ते ही भारतीय देहात का महासागर शुरू हो जाता था।

वहीं एक ट्रक खड़ा था...”

अब इन शब्दों या वाक्यों में कोई व्यंग्य नहीं है। यहाँ तक कि देहात के लिए आया महासागर का रूपक भी अपने आपमें कोई व्यंग्यात्मक प्रभाव नहीं छोड़ता। यह रूपक किसी व्यंग्येतर उपन्यास में भी आ सकता था| तब तो कोई बिलकुल भी न कह सकता कि यह व्यंग्य है। अभी भी हम इसमें थोड़ा-बहुत व्यंग्य इसलिए सूँघ पा रहे होंगे कि हमें पहले से पता है कि यह ‘राग दरबारी’ का अंश है।

लेकिन ठीक अगला वाक्य इस पूरे परिदृश्य को व्यंग्य में बदल देता है :

“(वहीं एक ट्रक खड़ा था|) उसे देखते ही यकीन हो जाता था, इसका जन्म केवल सड़कों के साथ बलात्कार करने के लिए हुआ है|”
‘बलात्कार’ शब्द भी अपने आपमें व्यंग्यात्मक नहीं है, रोज अखबारों में हम इस शब्द को पढ़ते या न्यूज-चैनलों में सुनते हैं पर उससे हमारे भीतर व्यंग्य नहीं, जुगुप्सा उत्पन्न होती है। बेशक, आक्रोश भी उत्पन्न होता है, जो कि व्यंग्य का ही एक कारक है, बल्कि मुख्य कारक है, फिर भी अखबारों-चैनलों में ‘बलात्कार’ शब्द पढ़-सुनकर, आक्रोश उत्पन्न होने के बावजूद, व्यंग्य उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि आक्रोश व्यंग्य का कारक भले ही है, पर अपने आपमें व्यंग्य नहीं है| रचना में आक्रोश को व्यंग्य में बदला जाएगा, तभी वह व्यंग्य होगा।

लेकिन यहाँ ‘बलात्कार’ शब्द जबरदस्त व्यंग्य पैदा कर रहा है। अत्याचार, अनाचार, दुराचार जैसे बलात्कार से मिलते-जुलते शब्द वैसा व्यंग्य पैदा न कर पाते। ‘बलात्कार’ शब्द अपने में समाहित समस्त ज्यादती, विवशता, परिणाम यहाँ उत्पन्न कर देता है| इस वाक्य के साथ मिलकर पूर्ववर्ती वाक्य भी व्यंग्यात्मक हो जाते हैं| क्योंकि अब वे अलग वाक्य नहीं रहे| इस वाक्य के सहायक वाक्य हो गए।मिलकर ये एक ही महावाक्य या वाक्य-समूह बन गए।

अब जरा 1980 में पुस्तकाकार प्रकाशित व्यंग्य-उपन्यास ‘ब से बैंक’ का यह अंश देखिए :

“छात्र-छात्राओं के लिए वह टाकीज वैसे भी पर्याप्त आकर्षण रखता था। एक तो उस टाकीज में घटिया दर्जे की स्टंट फिल्में ही दिखाई जाती थीं, और दूसरे वह उनके स्कूल-कॉलेजों के एकदम पास था।| फलत: ‘जब जरा गर्दन उठाई देख ली’ जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी। स्कूल-कॉलेज से दफा हुए और सीधे टाकीज में ।पीछे-पीछे अध्यापक-गण भी उन्हें ढूँढ़ने निकलते और ‘मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक’ की तर्ज पर बनी ‘स्टूडेंट की दौड़ टाकीज तक’ कहावत को मद्देनजर रखते हुए, सीधे टाकीज पहुँचकर उन्हें धर लेते और कान पकड़कर (छात्रों के कानों से तात्पर्य है) ऐन घटना-स्थल पर जुर्माना ठोंक देते। बाद में जुर्माने की रकम से वे खुद भी फिल्म देखते और इस प्रकार जुर्माने की रकम का सही अर्थों में सदुपयोग करते।छात्रों की तलाश में निकले अध्यापक भी जब काफी देर तक न लौटते, तो प्रिंसिपल महोदय खुद भी मीर का यह शेर गुनगुनाते हुए, कि —
उन्हें ढूँढ़ते मीर खोए गए
कोई देखे उन्हें टाकीज की तरफ।
मय चपरासियों आदि के टाकीज पहुँच जाते| इस प्रकार, ऐसा अकसर हो जाता कि कक्षाएँ स्कूल-कॉलेजों की अपेक्षा टाकीज में लगतीं।”
देखा जा सकता है कि इस अंश के पहले-दूसरे वाक्य में व्यंग्य नहीं है, लेकिन वे वाक्य अगले व्यंग्यात्मक वाक्यों की आधारभूमि हैं और मिलकर सभी समग्र प्रभाव के रूप में व्यंग्यात्मक हो जाते हैं।

एक अंश 1994 में छपे व्यंग्य-उपन्यास ‘नरक-यात्रा’ से भी उद्धृत करना चाहूँगा :

“अस्पताल का मुर्दाघर।

अस्पताल की लंबी, बेतरतीब इमारत के अंत में एक टूटी पगडंडीनुमा सड़क थी, जो वहाँ समाप्त होती थी जहाँ इस समय एक ओर एक कमरे में लाश पड़ी थी तथा दूसरी ओर एक साइकिल खड़ी थी| साइकिल के कैरिअर में लंबी लाठी थी, जिसने इलाके में अच्छे-अच्छों की हड्डी-पसली बराबर की थी| लाठी हवलदार बलभद्दर की थी। लाश न मालूम किसकी थी।जिसकी थी, उसके रिश्तेदार उस कमरे के बाहर पास के मैदान में सिर झुकाए बैठे थे| साइकिल भी न मालूम किसकी थी। थाने में खड़ी थी, हवलदार ले आए थे| यह अस्पताल का मुर्दाघर था|...”

यह इस उपन्यास का प्रारंभिक अंश है| इस अंश में कोई व्यंग्य नहीं है| कोई नासमझ यह भी कह सकता है कि यह सपाटबयानी है| आजकल व्यंग्य में सपाटबयानी का बड़ा हल्ला है| इसे प्राय: दूसरे व्यंग्यकारों पर आरोप की तरह मढ़ा जाता है| इस विषय पर मैं कुछ समय पूर्व यहीं विस्तार से लिख चुका हूँ और परसाई आदि का उदाहरण देते हुए बता चुका हूँ कि किस तरह सक्षम व्यंग्यकार के हाथ में पड़कर सपाटबयानी भी व्यंग्य का घातक हथियार बन जाती है| लेकिन हाँ, सक्षम व्यंग्यकार के हाथ में ही| वरना तो व्यंग्य के नाम पर आजकल भयंकर सपाटबयानी चल रही है, जो व्यंग्य को व्यंग्य ही नहीं रहने देती| इस बारे में वरिष्ठ व्यंग्यकार सुभाष चंदर की चिंता बहुत वाजिब है और नए व्यंग्यकारों को खास तौर से उस पर ध्यान देना चाहिए| जहाँ तक उपर्युक्त व्यंग्यरहित वाक्यों का सवाल है, तो आगे आने वाले ये वाक्य उन्हें भी अपने में समाहित कर व्यंग्य का घनीभूत प्रभाव उत्पन्न कर देते हैं :

“(यह अस्पताल का मुर्दाघर था|) लोग इसे प्यार से चीरघर या पोस्टमार्टम-रूम भी कहते थे क्योंकि यहाँ लाशों को चीरकर, फाड़कर, आँतों, मस्तिष्क आदि की गहराइयों में उतरकर विद्वान् डॉक्टर यह तय करता था कि मौत कैसे हुई? देश की कर्तव्यपरायण पुलिस, सदैव चपल वकील, जैबी-जासूस तथा न्याय करने को आतुर न्यायालय इन पोस्टमार्टम रिपोर्टों की गंभीरता से प्रतीक्षा करते थे| इसी भिनकते, घिनाते, गँधाते कमरे में बड़ी-बड़ी हत्याओं के केस सुलझाए जाएँगे, ऐसा भोला विश्वास देश के कानूनविदों का था| इस इलाके में जो भी मरकर पुलिस के हत्थे चढ़ता, वह यहीं पहुँचता था|”

उदाहरण अन्य समर्थ व्यंग्य-उपन्यासकारों के उपन्यासों में से भी दे सकता हूँ और आगे अलग से और विस्तार से यह काम करूँगा भी, बल्कि कर ही रहा हूँ, लेकिन यहाँ बात लंबी हो जाने के भय से फिलहाल और अधिक उदाहरण न देते हुए मैं एक संभावित जिज्ञासा का समाधान और करना चाहूँगा| वह यह कि जब व्यंग्य-उपन्यासों में सभी वाक्य व्यंग्यात्मक नहीं होते, तो ऐसा क्यों नहीं समझा जा सकता कि तीस-पैंतीस प्रतिशत, बल्कि साठ-पैंसठ या सत्तर-अस्सी या अस्सी-नब्बे प्रतिशत भी, व्यंग्य होने पर उपन्यास व्यंग्य-उपन्यास हो जाता है?
वह इसलिए कि इन दोनों बातों में अंतर है| व्यंग्यात्मक वाक्यों से पहले आने वाले व्यंग्यरहित वाक्य, चाहे वे संख्या में आधे-आधे भी क्यों न हों, व्यंग्यात्मक वाक्यों के साथ मिलकर एक अटूट व्यंग्यात्मक इकाई बनते हैं, जबकि कहीं सामान्य और कहीं व्यंग्यात्मक अंश उसे व्यंग्य-उपन्यास नहीं रहने देते| पहले मामले में सभी वाक्य मिलकर व्यंग्य का समग्र प्रभाव छोड़ते हैं, जबकि दूसरे मामले में व्यंग्यात्मक अंश तो व्यंग्य का प्रभाव छोड़ेगा, लेकिन सामान्य अंश नहीं| दूसरे शब्दों में, व्यंग्य-उपन्यास में आने वाले साधारण वाक्यों की अपने आपमें कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं होती, वे व्यंग्यात्मक वाक्यों की ओर ले जाने वाले वाहक मात्र होते हैं, और अलग से व्यंग्यात्मक न होते हुए भी व्यंग्यात्मक वाक्यों के साथ मिलकर समग्रत: व्यंग्यात्मक प्रभाव छोड़ते हैं, जबकि दूसरे मामले में व्यंग्यकार कुछ प्रसंगों या अंशों को व्यंग्यात्मक बनाने में असमर्थ रहता है| और इसलिए ऐसा भी हो सकता है कि अगर कोई अन्य व्यंग्यकार उन्हें लिखता, तो उन्हें भी व्यंग्यात्मक रूप में ही प्रस्तुत कर देता|

अंत में यह समझना भी आवश्यक है कि कथानक उपन्यास को केवल उपन्यास बनाता है, व्यंग्य-उपन्यास नहीं| व्यंग्य-उपन्यास उसे व्यंग्य ही बनाता है| इसलिए कुछ व्यंग्यकारों की यह धारणा न केवल गलत है, बल्कि कुछ हद तक उनकी अक्षमता भी प्रदर्शित करती है, कि (कभार-कभार ही सही) कथानक के आगे व्यंग्य शिथिल हो जाए तो चलेगा, पर कथानक शिथिल नहीं होना चाहिए| ऐसा अकसर वे व्यंग्यकार ही कहते पाए जाते हैं, जिनके व्यंग्य-उपन्यासों में कथानक के आगे व्यंग्य शिथिल होता पाया जाता है|

और हाँ, ये बातें व्यंग्य-उपन्यास पर ही नहीं, सभी व्यंग्य-रचनाओं पर लागू होती हैं।

-सुरेश कांत

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